________________
२६७
कुन्ती और महाराज पाण्डू और यह है चित्र । अब तक पुप्प लताओं में छिपे इस चित्रकार को न देख सकने के कारण वे उस चित्र को मजीव मममते रहे । कितना अनुपम चित्र है यह । वे अपनी भूल पर स्वय ही लज्जित होकर रह गए।
आगे बढ़े। और वृक्ष के नीचे चित्र पूर्ण करते चित्रकार के निकट पहच कर व चित्र को एक टक देखते रहे और मन ही मन प्रशला करते रहे । वह चित्र था, फिर भी था कितना सजीव । ___ "चित्रकार | कितनी सुन्दर कल्पना है आपकी । कदाचित अप्सराएँ भी इतनी सुन्दर न होती हो।"
राजा पाण्ड की बात सुन कर अपने कार्य में लगा चित्रकार चौक पड़ा। पीठ पीछे देख कर उसने पाण्डू नृप पर एक दृष्टि डाली और बम्बों तथा नखशिस्त्र को देख कर उसने अनुमान लगाया कि वह कोई नृप ही है । प्रणाम कर के बोला "राजन् । यह कल्पना नहीं एक सुन्दरी का चित्र है।" ___"क्या इतनी सुन्दर भी कोई सुन्दरी है इस भूमि पर ?' नृप विरमति हो वोले। ___“जी हां, यह कुन्ती का चित्र है। अधकवृष्णि की कन्या कुन्ती का।"
"क्या वह इतनी रूपवती है ?"
"जो हा वह अपने रुप में अद्वितीय है। अप्सरा भी उस के सामने हीन हैं।"
चित्रकार की बात सुन कर पाण्टू ने चित्र को अतृप्त नत्री से पारम्बार देखा और इस महान सुन्दरी को प्राप्त करने की इच्छा लकर यह चित्रकार को अपने साथ ले महल में लौट पाया । चित्र को मारने रख कर घण्टो तक उसे देखता रहा । और क्तिना ही वह मृल्य उपहार देकर चित्रकार को विदा किया । चित्रकार तो चला गया पर पाएट को एक तरफ दे गया, च्चों पानी बिन मीन, और चन्द्र निन चकार तरपती है, उसी भाति एन्ती के लिए पारद तडपने लगे। नगरा भय
ल, तमाशे, माफिलें, राग रग. गज्यपाट और अन्य मित्रगण उन के रदय में चसी पीडा को समाप्त नहीं कर पाए। पं व्यारल । नीर