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जैन महाभारत
कली की मूक वाणी को न समझ सके । वे प्रशसापूर्ण नेत्रो से देखते रहे। रंग बिरगे पुष्पों को देखते हुए वे आगे बढ़े। अनायास ही उन्हे एक अप्सरा सी दिखाई दी। वे उसे देखते ही ठिठक गए। उन्होने नजरे गड़ा दीं । अप्सरा की आकृति मुस्करा रही थी उसके अधर पल्लव मुस्कान से तनिक से खिले थे । उसके कपोलो पर गुलाबी रंग, गुलाब पुष्पों के सौंदर्य को चुनौती दे रहे थे। उसके अधरो की लालिमा कमल के रूप को चुनोती दे रही थी। उसके घने काले केश रात्रि की घोर कालिमा को भी मात कर रहे थे। वे काले रेशम की भांति चमक रहे थे। उसकी साड़ी रग बिरगे पुष्पो के सौदर्य को अपने दामन में छिपाये थी और उसके उन्नत वक्षस्थल गर्वित सेवों से प्रतीत होते थे जो रेशमीन कपड़े मे से झॉक रहे थे । वह खड़ी थी अचल । एक बार पाण्डू नृप ने देखा और सभ्यता के नाते गर्दन झुका ली। फिर पन. उसे एक टक निहारने की आकांक्षा उनके मन मे बलवती हो गई। अनायास ही दृष्टि उस ओर गई, और उस पर जा टिकी । वह फिर भी मुस्करा रही थी। पाण्डू नृप चाहते हुए भी उस की ओर से दृष्टि न हटा सके। क्योंकि उनका मन तो उस अप्सरा की आकृति पर माख हो गया था। उनकी दृष्टि को उसके रूप ने बन्दी बना लिया था. अपने रूप की उसने शृखलाए पहना दी थीं उसके नेत्रों को। चे सधबध खो कर उसके रूप पर मोहित हो गए थे। सारा उद्यान उ स एक आकृति के सामने हेच प्रतीत होने लगा। जो रूप उस मे था वह सहस्रों खिले और अधखिले पुष्पों मे भी नहीं था। वे नेत्र अजलि से उस का रूप पान कर रहे थे। कितनी ही देरि तक वे उसे देखते रहे। पर वह मुस्कराती ही रही। मुस्कराती रही, न मुस्कान अट्टहास में परिवर्तित हुई और न अघरो से लुप्त ही हुई । उसकी पलके जैसे खली थी वैसे खुली ही रही । "ओह । यह तो पलक भी नहीं झपकती।" इस बात पर जब उनका ध्यान गया वे चकित रह गए। घण्टो कौन बिना पलक झपकाए इस प्रकार एकाग्रचित्त, चित्र लिखित सा खड़ा रह सकता है ? उन्हे आशका हुई। कहीं यह मूर्ति तो नहीं । हां मूर्ति ही होगी। निर्जीव मुर्ति । वे आगे बढ़े तो देखा कि उस अप्सरा आकृति के चरणों में एक व्यक्ति बैठा है, उनकी ओर पीठ किए। उसके हाथ में थी तूलिका और कुछ पात्र साथ में रखे थे। यह तो चित्रकार है।