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कुन्ती और महाराज पाण्डू और यह है चित्र । अब तक पुप्प लताओं में छिपे इस चित्रकार को न देख सकने के कारण वे उस चित्र को सजीव समझते रहे । कितना अनुपम चित्र है यह । वे अपनी भूल पर स्वय ही लज्जित होकर रह गए।
आगे बढे । ओर वृक्ष के नीचे चित्र पूर्ण करते चित्रकार के निकट पहुच कर वे चित्र को एक टक देखते रहे और मन ही मन प्रशसा करते रहे । वह चित्र था, फिर भी था कितना सजीव । ___"चित्रकार | कितनी सुन्दर कल्पना है आपकी । कदाचित अप्सरा भी इतनी सुन्दर न होती हो।"
राजा पाण्ड की बात सुन कर अपने कार्य में लगा चित्रकार चौक पडा। पीठ पीछे देख कर उसने पाण्डू नृप पर एक दृष्टि डाली और वस्त्रों तथा नखशिख को देख कर उसने अनुमान लगाया कि वह कोई नप ही है। प्रणाम कर के बोला "राजन् । यह कल्पना नहीं एक सुन्दरी का चित्र है।"
"क्या इतनी सुन्दर भी कोई सुन्दरी है इस 'भूमि पर ?' नृप विम्मति हो बोल।
"जी हां, यह कुन्ती का चित्र है। अधकवृष्णि की कन्या कुन्ती
का।"
"क्या वह इतनी रूपवती है ?"
"जो हा यह अपने रूप में अद्वितीय है। अप्सराएं भी उस के सामने हीन हैं।"
चित्रकार की बात सुन कर पाण्टू ने चित्र को अतप्न मंत्री से पारम्बार देखा और इस महान् सुन्दरी को प्राप्त करने की इच्छा लकर यह चित्रकार को अपने साथ ले महल में लौट श्याया। चित्र को सामने रख कर घण्टों तक उसे देखता रहा । और कितना ही यह मूल्य उपहार देकर चित्रकार को विदा किया। चित्रकार तो चला गया पर पाएट को एक तडफ दे गया, ज्यों पानी बिन मीन, नीर चन्द दिन चकार तरपती है. उसी भाति युन्ती के लिए पारड तरपने लगे। लाग भर खल, तमाशे, महफ्लेि. राग रग रायपाट श्रार अन्य मित्रगण न के हत्य में बसी पीडामोसमाप्त नहीं कर पाए। वं व्यारल थे। श्रीर