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________________ महाराणी गंगा २६१ "क्या ?" "वे कहते हैं कि राज्य सिंहासन पर चूंकि वे हैं त आपने सिंहासन के अपमान पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया, आप होते तो श्रवश्य आप भी व्याकुल होते ओर कुछ कर गुजरते ।” मन्त्री जी ने कहा । बात सुनते ही भीष्म बहुत ही गम्भीर हो गए। कहने लगे "अच्छा। तो बात यहाँ तक पहुँच गई है ? – उनसे जाकर कह दो कि गद्दी पर चाहे विचित्र वीर्य ही क्यों न है फिर भी सिंहासन के सन्मान का इतना ही मुझे ध्यान है जितना मेरे सिंहासन पर आरूढ होने के समय होता है ।" मंत्री जी सुन कर चल दिए । अभी दो तीन पग ही रखे थे कि भीष्म ने गरजती हुई गम्भीर वाणी में कहा “ ठहरो | उनसे जाकर कहो, कि मैं उन्हें एक नहीं तीनों कन्याऐं लाकर दूगा । वे निश्चित रहें ।" -- और भीष्म ( गांगेय कुमार ) यौद्धा के रूप में आ गए। अपने शस्त्र अस्त्र सम्भाले । रण के वस्त्र धारण किये और रथ पर सवार होकर काशी की ओर चल पड़े। वे चल पडे हस्तिनापुर राज्य की मान मर्यादा की रक्षा और विचित्र वीर्य की इच्छा पूर्ति के लिए। भ्रातृत्व का अनुपम आदर्श प्रस्तुत करने के लिए वे भीष्म जो स्वय विवाह न फरने की भीष्म प्रतिज्ञा ले चुके थे काशी नृप की कन्याओं को अपने भ्राता के लिए लेने जा रहे थे । भाग्य - काशी में जब पहुँचे तो स्वयवर के लिए चारों ओर से नृप और राजकुमार आ चुके थे । स्वयवर की पूर्ण तैयारी हो चुकी थीं। तीनों फन्याए 'अपने अपने वर को चुनने का अधिकार पा चुकी थीं। सभी निमन्त्रित राजे, महाराजे ओर राजकुमार अपना आजमाने के लिए उपस्थित थे अनेक अस्त्र शस्त्रों से सज्जित, विभिन्न प्रकार की वेष भूषा को धारण किये कितने ही शूरवीर उपस्थित थे । काशी मारी की सारी दुल्हन के रूप में सजी थी। पर किसी को ज्ञात नहीं था हस्तिनापुर के जिसके नृप पो जो दीन जाति का समनकर निमन्त्रित नहीं किया गया था, सिंहासन की मान मर्यादा की रक्षा के लिए अद्वितीय वीर महावली भीष्म काशी में पहुँच चुके हैं ।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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