________________
२६२
जैन महाभारत स्वयवर के समय पर भीष्म को वहाँ देख कर सभी को बहुत आश्चर्य हुआ । काशी नृप ने कहा कि भीष्म ने तो आजीवन ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा की है ? क्या वे अपनी प्रतिज्ञा को भग करने यहां आये है ? उन्हें तो निमन्त्रित भी नहीं किया गया विना निमत्रण के आना तो भयकर धृष्टता है । जब तीनो कन्याएं वरमाला लिए स्वयवर मण्डप में आई । भीष्म उठे और उन्होने बलपूर्वक उन्हे उठा लिया। रथ पर डाल कर चलने लगे। काशी नृप ने शस्त्र सम्भाले और भीष्म के मुकाबले पर आ डटे। किन्तु भीष्म महाबलि थे। उन्होंने अपने अस्त्र शस्त्रो का प्रयोग प्रारम्भ किया तो काशी नरेश की सारी सेना भी न ठहर सकी। उनकी तलवार के सामने जो आता वही ढेर हो जाता । क्षण भर में ही हाहाकार मच गया। उत्सव भंग हो गया। जय जयकारों और नृत्य तथा अन्य समारोह का स्थान शस्त्रों की भकारों और हताहतो के चीत्कारो ने ले लिया। काशी नरेश की सेना परास्त हो गई । तब आगन्तुक नरेशो और राजकुमारो ने इसे अपना अपमान समझ कर, सबके सब, भीष्म पितामह पर टूट पड़े।
एक भीष्म सभी को खडगों का मुकाबला करते रहे। वे स्वयं चलते समय भी इस सकट को समझते थे और उन्होने जानबूझ कर ही सकट मोल लिया था। उन्हें अपनी भुजाओ और अपने रण कौशल पर गर्व था। उस गर्व का साक्षात प्रमाण उस युद्ध ने प्रस्तुत कर दिया। सभी नरेश पूरी शक्ति से लडे पर भीष्म को परास्त न कर पाये । वे काशी नरेश की कन्याओं को यह कह कर ले जाने मे सफल हो गए कि "हस्तिनापुर के सिंहासन की उपेक्षा सहज नहीं है। हम अपने अपमान का बदला लेना जानते है।"
अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका को लेकर वे शीघ्र ही हस्तिनापुर पहुँच गए । बड़े भ्राता को इस प्रकार विजय पताका फहराते हुए आते देख कर विचित्र वीर्य के हर्प का ठिकाना न रहा । उसने उन्हे बारम्बार वधाई दी। भीम जी ने तीनो कन्याए उसे सौपकर कहा "यह तुम्हारी भूल है कि तुम्हारे सिंहासन पर होने के कारण मैं सिंहासन की मान मर्यादा की चिन्ता नहीं करता । मैं इसके लिये प्राण भी दे सकता हूं। मैंने काशी नरेश ही नहीं समस्त राजाओं को बता दिया है कि हस्तिनापुर नरेश की अवहेलना करना कितने बड़े सकट को मौल लना है। आपके सिंहासन की धाक जमा आया हूँ। अब आप
4
.