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२६० जैन महाभारत
marrrrrrrr "तो विरोध पत्र भेज दीजिए।"
"भाई साहब | आप भी क्या बाते करते है । लातों के भूत कभी बातों से माना करते है ?" विचित्र वीये ने आवेश मे आकर कहा।
"ऐसा करके तो वे अपने को लोगो की दृष्टि में गिरा रहे हैं। आप विश्वास रखें कोई नप उनके इस कृत्य की प्रशंसा नहीं करेगा" भीष्म शॉति पूर्वक कह रहे थे । “भ्राता जी । आप तो इतनी बड़ी चोट सह कर मी शांत हैं । मेरा विचार तो यह था कि हस्तिनापुर के सिंहासन के अपमान से आपका रक्त खौल उठेगा" विचित्र वीर्य ने भीष्म को उत्तचित करने की चेष्टा की। ___ "उत्तेचित होने से काम नहीं चला करता। यदि कोई गधा हमारे लात मारे तो उसका उत्तर यह नहीं कि हम भी उस के लात ही मारे । शठता के प्रति शठता की नीति ठीक नहीं है । विचार कीजिये अवसर आने पर उन्हे उनके कुकृत्य का मजा चखा दिया जायेगा" भीष्म ने गम्भीरता से कहा। ___"नहीं। हमे इसी समय कुछ करना होगा' विचित्र वीर्य ने सिहासन पर मुक्का मारते हुए कहा । ___"तो सोच लीजिए क्या करना है" इतना कह कर वे वहाँ से चले गए । विचित्र वीर्य को उनका इस प्रकार चला जाना अच्छा नहीं लगा। पर वह उन के बिना कुछ कर भी तो नहीं सकता था।
"नप आजकले बहुत परेशान एवं दुखी हैं" मंत्री ने भीष्म (गांगेय कुमार) से कहा । वे एकान्त में बैठे कुछ पढ़ रहे थे। मत्री जी आज्ञा लेकर वहीं पहुंच गए थे।
"क्यों ?" पुस्तक से दृष्टि हटा कर मंत्री जी की ओर देखते हुए उन्होंने पूछा। ___"वे काशी नप द्वारा अपमान किये जाने से इतने ही व्याकुल हैं, जितना कोई मनुष्य विषैला बाण खाकर होता है।"
"इतनी सी बातों पर इतना व्याकुल होने से काम नहीं चला करता आप उन्हें परामर्श दीजिए कि वे शॉत रहे। समय आने पर देखा जायेगा।'' भीष्म बोले।
"मेरे परामर्श का क्या उठता है। वे तो आपके बारे में भी शिकायत कर रहे हैं"