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महाराणी गगा
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चला गया । वहाँ जाकर क्या देखता हूं ? कि एक उसी समय उत्पन्न हुई कन्या पडी है | बडी ही सुन्दर चन्द्रमा की छवि उसके मुख पर विद्यमान थी । मेरे कोई सन्तान नहीं थी । इसलिए निशि दिन सन्तान की चिन्ता में ही घुलता रहता था, इतनी सुन्दर कन्या को देख कर मेरा मन प्रफुल्लित हो गया। मुझे अनायास ही एक अनुपम रत्न मिल गया था । उस कन्या को मैंने उठा लिया, प्यार किया । इतने में ही आकाश मे एक आवाज सुनाई दी, "रत्नपुर के राजा रत्नागढ़ की रानी रत्नवती के गर्भ से इस कन्या का जन्म हुआ है । नृप रत्नागद का शत्रु एक विद्याधर इसे उठा कर यहां डाल गया है । इसका लाड प्यार से पालन पोषण करो | एक दिन यह कन्या कुरुवश की स्त्री रत्न वनेगी ।" मैंने आकाश वाणी सुनी । अपने घर के निस्सतान पन को दूर करने के लिए मैं उसे अपने घर ले गया और वहां बडे लाड़ प्यार से पाला सत्यवती वही कन्या है । यह राज परिवार की सन्तान है, मैंने तो बस इस का पालन पोषण भर किया है
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गांगेय कुमार ने यह कथा सुनी तो बहुत प्रसन्न हुए । उन्हें इस बात का सन्तोष हुआ कि उनके पिता एक ऐसी कन्या से विवाह कर रहे हैं जो किसी राज्य परिवार का का ही रत्न है ।
नाविक सत्यवती का विवाह शान्तनु से करने को तैयार हो गया । इस शुभ सन्देश को लेकर गांगेय कुमार (भीष्म) अपने पिता के पास गए, उनके चरण छू कर वह शुभ सन्देश सुनाया । राजा को आश्चर्य हुआ कि नाविक विवाह के लिए तैयार कैसे हो गया । उन्होंने पूछ ही तो लिया कि नाविक की शंकाओं का समाधान कैसे हुआ । तब गागेय फुमार (भीष्म) ने अपनी भीष्म प्रतिज्ञा की बात कह सुनाई । शान्तनु को भी प्रतिक्षा पर विस्मय हुआ उनके नेत्रों में अश्रु बिन्दु छलछला आये । छाती से लगा कर बोले "गांगेय ! तुमने अपने पिता के लिए इतनी भीष्म प्रतिज्ञा की है कि, मैं आज तुम्हारे सामने तुच्छ रह गया, मेरी प्रसन्नता के लिए तुमने अपने भावी जीवन को एक कठोर व्रत में पांध दिया मैं तुम्हारे इस त्याग के बोझ से दबा जा रहा हॅू। मैं कभी उप नहीं हो सकूंगा ।"
"नहीं पिताजी ! यह तो मेरा कर्तव्य था । आप मुझे आशीर्वाद टीजिए कि मैं अपने व्रत को दृढतापूर्वक निभा सकू
"