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जैन महाभारत
"आपका तो मुझे विश्वास पहले से ही है, वह विश्वास दृढ़ अव हो गया, नाविक बोला, पर इसकी क्या गारंटी है कि आपकी सन्तान आपके पदचिन्हों पर चलेगी ? कहीं आपकी सन्तान ने उनसे राजपाट छीन लिया तो क्या होगा ? क्योंकि वह कैसे दूसरे के राज काज को सहन कर सकेगी ? - नहीं कुमार मेरी कन्या की सन्तान निष्कंटक राज्य के सुख को न भोग पायेगी ।"
चतुर गांगेय नाविक के मनोगत भाव ताड़ गये । और बोले "मैं सुपूत हूँ, और एक सुपूत अपने पिता को सन्तुष्ट एव सुखी देखने के लिए अपने प्राणों तक की बलि दे सकता है - मैं आपकी इस चिन्ता को भी अभी ही दूर किये देता हूँ ।" इतना कह कर वे रुके और पहले आकाश फिर पृथ्वी और फिर चारों दिशाओं की ओर मुख करके हाथ ऊंचा उठा कर बोले “ आज मैं आकाश, पृथ्वी, चारों दिशाओं, उपस्थित जीवों को साक्षी वना कर प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं आजीवन ब्रह्मचारी रहूंगा" इतनी कठोर प्रतिज्ञा की, इतना कठिन व्रत लिया, गांगेय ने कि सुन कर सभी लोग आश्चर्य चकित रह गए । गांगेय कुमार इस भीष्म प्रतिज्ञा के उपरान्त ही भीष्म पितामह के नाम से पुकारे गए ।
" एक बात और ? " नाविक ने कहा, आप जीवन भर सत्यवती की सन्तान का पक्ष लेंगे ? नाविक की इच्छा पूर्ति के लिये गांगेय कुमार ने यह भी प्रतिज्ञा की । नाविक को पहले तो यह विचित्र सी प्रतिज्ञा लगी और फिर अपनी सफलता पर बहुत ही प्रसन्न हुआ । गद्गद् होकर वह बोला "राजकुमार । तुम वास्तव मे सुपुत्र हो, तुम जैसे गुणवान, पितृभक्त और आदर्श पुत्र पर महाराज जितना भी गर्व करें कम ही है । तुमने आज पितृभक्ति का उच्चादर्श प्रस्तुत कर ससार में अपने को अमर कर लिया । मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ । आ इस प्रसग में मैं तुम्हें एक कहानी सुनाऊ ।”
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इतना कह कर वह गांगेय को कहानी सुनाने लगा वह कहानी थी सत्यवती की ।
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सत्यवती
बहुत दिनों की बात है । एक दिन नाव खेते खेते मैं बुरी तरह थक गया और विश्राम करने हेतु यमुना तट पर एक अशोक वृक्ष के नीचे