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जैन महाभारत
बातो बातों में ही ठन गई । दानों ओर से एक दूसरे को धूली धूसरित करने की डींगें हॉकी जा रही थीं। गागेय ने धनुष उठाया और नृप की ध्वजा गिरा दी। दूसरे बाण से सारथी को मूच्छित कर दिया। शान्तनु तीर पर तीर चलाने लगे, पर गागेय उनके तीरों को अपने बाणां द्वारा बीच मे ही गिरा देते । इतने ही में शान्तनु के एक अनुचर ने कुमार को घेर लिया, बलिष्ट गागेय शूरवीर ने उसे पछाड़ दिया, शान्तनु क्रोधित हो अपनी पूरी शक्ति से धनुष पर बाण चढ़ाने लगे। कुमार ने तुरन्त ऐसा तीर मारा कि उनके धनुष की डोरी कट गई। ज्यो ही गागेय कुमार ने महाराज शान्तनु पर वार करना चाहा, पीछे से आवाज आई "गांगेय । ठहरो” यह थी एक स्त्री कण्ठ से निकली आवाज । गांगेय ने पीछे मुड़ कर देखा, गगा चली आ रही थी । गंगा जो उमकी मा थी और महाराज शान्तनु ने गांगेय का नाम सुना और गगा को देखा तो आश्चर्य चकित रह गए, यह मेरा ही पुत्र है।
ओह ! इतना शूरवीर और रणवीर महाराज शान्तनु सोचने लगे। ____ "क्या है माँ " गांगेय को उस समय माता द्वारा इस प्रकार रोका जाना रुचि कर न लगा था।
"बेटा, यह तुम क्या कर रहे हो ?' दूर से आती गगा ने पुकार कर कहा।
"मां ! यह श्रीमन् निरपराधी पशुओ का वध कर रहे हैं, मैंने इन्हे शिकार खेलने को मना किया तो मुझ पर धौस जमाने लगे । अब देखता हूँ इनका पौरुष जिस पर इन्हें अभिमान है।" गागेय कुमार ने कहा।
गगा पास आ गई थी, उसने अपने स्वामी को प्रणाम किया, गागेय के नेत्रो मे आश्चर्य खेल गया।
वेटा । आप ?-आप भी निरपराधी का वध करते हैं।'' गगा ने आश्चर्य से कहा।
शान्तनु ने गागेय को छाती से लगा लिया और उसकी वीरता की भूरि भूरि प्रशसा की।
"महाराज ! देखा इस दुर्व्यसन का परिणाम ! आज मै यहां ठीक समय पर न पहुँचती तो या तो मैं विधवा हो जाती अथवा गोद खाली