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महाराणी गगा नहीं है, मूर्ख कैसे उछलता हुआ निकल रहा है, बडा गर्व है इसे अपने पर ?" एक अनुचर बोल पड़ा।
"अनी । अगर महाराज ने धनुष उठा लिया तो सारी उछल कूद क्षण भर में भूल जायेगा।" दूसरा बोला, और तीसरे ने तीर ठीक निशाने पर मारते हुए कहा, "महाराज का एक ही वाण देखिए कैसे इसे शान्त करता है।"
और महाराज के हाथ में उसी क्षण धनुष आगया, चल पड़े उस के पीछे । निकट ही में गागेय कुमार घूम रहे थे, ज्यों ही सामने महाराज शान्तनु को धनुष बाण सम्भाले मृग का पीछा करते उन्हे देखा, निकट आकर बोल उठा "महाराज । इस मृग बेचारे ने भला आप का क्या बिगाड़ा है, निरपराधी के प्राण लेते आप को तनिक लज्जा नहीं आती, आप के हृदय की करुणा और दया क्या सभी लुप्त हो गई ?" ___ महाराज ने मृग पर ही दृष्टि जमाए हुए कहा "किसी के काम मे विघ्न डालते हुए तुम्हे लज्जा नहीं आती ?" _ 'मेरा कर्तव्य है कि अनिष्ट और अन्याय करते हुए मनुष्य को रोकू ।” गांगेय कुमार वोला। __ महाराज शान्तनु को क्रोध आ गया, उन्होंने उसकी ओर मुख करके कहा "मेरे रास्ते में रोदा मत बनो। अपनी खैर चाहते हो तो यहाँ से चले जाओ। मैं अपने काम में किसी का विघ्न सहन नहीं कर सकता।" __ "तो भी सुन लीजिए, गागेय कुमार उत्तेजित होकर बोला, यहाँ आप शिकार नहीं खेल सकते।"
महाराज शान्तनु के नेत्रों में लाली दौड़ गई "हट जाओ कहीं ऐसा न हो कि मृग के बजाय मुझे तुम्हीं पर निशाना साधना पडे।"
युवक गांगेय कुमार की रगों में दौड़ते रक्त में गर्मी आ गई। उस का मुखमण्डल जलने लगा "आप यह मत भूलिये कि मैं क्षत्रिय पुत्र हूँ। मैं किसी को चुनौती सहन नहीं कर सकता।" ___-और मैं तुम जैसे सिर फिरों को बाणों से वींध डालने में अभ्यस्त हूँ" महाराज शान्तनु ने गरज कर कहा ।
दूसरी ओर से गागेय कुमार भी मुकाबले के लिए तैयार हो गया,