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जैन महाभारत
में आगया। देवकी ने दरिद्र की निधि की भाँति उस गर्भ की बड़ी सावधानी से रक्षा की। दोहद 'काल के पूर्ण होने पर श्रावण कृष्णा अष्ठमी को रात्रि के समय शुभ मुहूर्त में देवकी के उदर से श्री कृष्ण का जन्म हुआ।
देवकी के आग्रह पर उसके सप्तम पुत्र के जीवन रक्षा की योजना बन चुकी थी । और इस बालक के लिये महान् त्याग तथा बलिदान करने वाला संरक्षक वसुदेव को मिल गया था। शिशु के मुख पर अपूर्व कॉति थी । वसुदेव ने मुख देखा तो हृदय पुलकित हो गया। उन्होंने एक क्षण भी व्यर्थ जाने देना अनुचित जान कर बालक को गोद में उठा लिया। और खर्राटे भरते पहरेदारो को वहीं निद्रामग्न छोड़ बालक को लेकर चल पड़े।
सड़कें सुनसान थीं। अंधकार व्याप्त था, पर इस घोर काली रात्रि का सीना चीरती हुई तड़ित की रेखा प्रकाश उन्हे रास्ता दिखाने लगा। वसुदेव मथुरा के द्वार पर पहुंचे । लौह के ऊचे और मजबूत द्वार पर जाकर देखा कि भारी भरकम ताले लटक रहे है, श्रखलाए जकड़ी हुई है। वसुदेव चिन्तित हो गए-हाय अब वे कैसे निकलेगे। पर उसी क्षण बालक के हाथ पावों की हरकत हुई, पैर फाटक से जा भिड़े और "तड़ाक, तड़ाक" समस्त ताले, शृखलाए आदि एक क्षण मे टूट गए। और फाटक स्वय “चर्ट-चट" होकर खुल गया। इस
आश्चर्य जनक घटना को देख कर वसुदेव आश्चर्य चकित रह गए | द्वार श्रखलाएं और ताले स्वयं रास्ता दे रहे थे।
द्वार पर रखे पिंजरे में बन्दी उप्रसैन ने ताले टूटने की आवाज सुनीं, वे घबराकर जाग उठे। पूछा--
१ उत्तर भारत की दृष्टि से भाद्रपद कृष्ण । ' तो वसुदेव का पुत्र वासुदेव कहलाता है किन्तु जैन शास्त्रो में वसुदेव एक पद विशेष माना गया है। श्रीकृष्ण नवें वासुदेव थे । वासुदेव के कतिपय लक्षण हैं जो इनके परिचायक हाते हैं । जैसे -कोटि मन प्रमाण वाली प्रस्तर शिला का उठाना प्रति वासुदेव को रणक्षेत्र में पछाडना, भरत क्षेत्र के तीन खण्डो पर पूर्ण आधिपत्य का होना, सोलह हजार रागानो का आधिपत्य होना सोलह हजार देवो का आश्रित रहना, रणक्षेत्र में विना शस्त्र के दस हजार योद्धाओ के दमन की शक्ति का होना सुदर्शन चक्र यह चिह्न विशेष है।