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महाभारत नायक बलभद्र और श्रीकृष्ण
२५७ देवकी के नवजात शिशु को तुम्हारे यहां लाकर रख दूगा। इस परिर्वतन से देवकी की कोई हानि न होगी और तुम्हारी मनोकामना भी पूर्ण हो जायेगी क्योकि देवकी के बच्चे तो अन्त में कॅस के हाथों मारे ही जायेगें। उसके बच्चे तुम्हे मिल जाने से उसके बच्चों की भी रक्षा हो जायेगी और तुम्हारा मृतवत्सा योग भी टल जायेगा।
यह कह कर वह हरिणेगमेषी देव वहा से अदृश्य हो गया । समय आने पर वे दोनों एक ही साथ रजस्वला हुई जिससे उन दोनों ने एक साथ ही गर्भ धारण किया। दोनों के प्रेसव भी एक ही समय हुआ। प्रसव समय हरिणैगमेषी देव ने आकर सुलसा और देवकी के जातकों में परिर्वतन कर दिया । इस प्रकार क्रमश प्रसवों का उसने परिवर्तन कर दिया । परिणाम स्वरुप देवकी के मरे हुए बालकों को कस ने शिला पर पटकवा दिया ।
उधर सुलसा की कुक्षि से छः पुत्र रत्न उत्पन्न हुए जिनके नाम क्रम से अनीकसेन,अनन्तसेन,अजितसेन,अनिहतरिपु, देवसेन और शत्रसेन रक्खे गये। इन छहों ही श्रेष्ठी पुत्रों के क्रमश उत्पन्न होने पर भी ये समान वय वाले ही प्रतीत होते थे। सरोवर में नीलोत्पल विकसित वर्ण के समान इनके शरीर त्वचा तथा अलसी के पुष्प के मानिन्द प्रकाशवान उनके मुखमण्डल की कान्ति थी। जन्म से ही उनके वक्षःस्थल पर स्वस्तिक चिन्ह अकित था जो उनके सुन्दर भविष्य का परिचायक था। इस प्रकार की दिव्य कान्ति युक्त वे नव जात शिशु पर्वत कन्दरा में स्थित मालती व चम्पक वृक्षकी भॉति पाच धात्रियों द्वारा लालित-पालित होते हुए द्वितीया के चन्द्रकला सदृश परिवृद्ध होने लगे।
इधर एक बार रात्रि को अपने शयन कक्ष में पुष्प शैय्या पर सोती रानी देवकी अपने मृतक पुत्रों के उत्पन्न होने तथा कस द्वारा वध करने की बात को बार बार स्मरण कर अपने भाग्य को कोसती है । इस प्रकार दुख की स्वासों के भरते २ करवटें बदलते २ रजनी तीन पहर बीत गई। चतुर्थ प्रहर में इन सकल्प विकल्पों से अलग हो सोयी ही थी कि उसकी अन्तिम पवित्र वेला में अर्धनिन्द्रित अवस्था में गजसिह सूर्य,ध्वजदेव, विमान, पद्मसरोवर और निधूर्म अग्नि ये सात महा शुभ स्वप्न दिखाई दिये। ये महा स्वप्न अत्यन्त मगलिक थे जो भावी वसुदेव के जन्म के सूचक थे । इन स्वप्नों के देखने के बाद तत्काल गंगदत्त का जीव महाशुक्र देवलोक से च्युत होकर देवकी के गर्भ