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जैन महाभारत
इस पर कस ने तत्काल दूत भेजकर महाराज समुद्रविजय से इस सम्बन्ध के सम्बन्ध मे स्वीकृति प्राप्त कर ली। उनकी स्वीकृति प्राप्त होते ही कस वसुदेव को अपने साथ ले अपने चाचा देवक की राजधानी मृत्तिकावृत्ति नगरी की ओर चल पडा । वे दोनों चले जा रहे थे कि मार्ग मे सयोग वश नारद मुनि से उनकी भेट हो गई । मुनिराज को अपने समक्ष देखते ही दोनों ने रथ से उतर कर उनको प्रणाम किया। नारद जी ने दोनों से कुशल प्रश्न पूछन के पश्चात् पूछा कि आज दोनो मित्र एक साथ किधर जा रहे हो। इस पर कस ने निवेदन किया कि
भगवन् । मेरे चाचा देवक की पुत्री देवकी का सम्बन्ध मै वसुदेव के साथ करना चाहता हूँ । इस लिए इन्हे अपने साथ ले मैं अपने चाचा की राजधानी मृत्तिकावृत्ति नगरी की ओर जा रहा हूँ।
यह सुन नारद जी ने उत्तर दिया कि जिस प्रकार वसुदेव पुरुषा में सर्व श्रेष्ठ है उसी ही प्रकार देवकी रमणी रत्नो की शिरोमणी है । प्रतीत होता है कि इस दिव्य ज्योति को मिलाने के लिए विधाता ने तुम दोनो को उत्पन्न किया है।
यह कह कर उन्होंने वसुदेव को सम्बोधित कर कहा कि वत्स इस सम्बन्ध को अबश्य स्वीकार कर लेना, क्योंकि देवकी ही ससार में तुम्हारे नाम को अमर और यशस्वी बनाएगी। ____ यह कह नारद मुनि आकाश मार्ग से उसी समय महाराज देवक के यहाँ जा पहुचे । सर्व प्रथम वे अन्त पुर में जा राजकुमारी देवकी के सामने उपस्थित हुए। अपने समक्ष सहसा देवर्षि नारद को देख देवकी अत्यन्त विस्मित व परम हर्षित हुई । तथा उन्हें प्रणाम कर अध्ये प्रदान आदि के द्वारा मुनिराज का यथोचित स्वागत सत्कार व पूजन आदि किया।
इस पर प्रसन्न हो नारद मुनि ने कहा कि वत्से । तुम्हारी श्रद्धा भावना को देखकर मे अत्यन्त प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि शीघ्र ही तुम्हे अनुरुप वर की प्राप्ति हो। और वह वर इस समय ससार में वसुदेव के सिवाय और कोई नहीं है। वसुदेव को पाकर तुम्हारा जीवन धन्य हो जायगा। तुम्हारा नाम अनन्त काल तक इस ससार में बना रहेगा।