SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाभारत नायक वलभद्र और श्रीकृष्ण २४. कम के हृदय में अभी तक पुरानी श्रद्धा भावना विगलित नहीं हुई थी, विगलित होना तो दूर रहा वह उत्तरोत्तर दृढ़ और बलवती हाती जा रही थी। उसके मन मे ऐसी बात समाई रहती थी कि कोई ऐसा कार्य करू जिससे वसुदेव के बड़े भारी उपवारो के ऋण से उऋण हो सकू । और साथ ही उस प्रेम बन्धन को और दृढ़ और पवित्र बना डालू किन्तु रात दिन सोचने पर भी उसे कोई उपयुक्त उपाय दिखाई नहीं देता था कि वह वसुदेव के उपकार के बदले मे क्या प्रत्युपकार करे। अन्त में एक दिन वैठे बैठे उसे एक उपाय सूझ ही गया। एक बार मथुरा अविपति महाराज कस देश भ्रमण करता हुआ शौरीपुर श्रा पहुँचा । उन्हें अपने यहाँ आया देख समुद्रविजय आदि भाइयों ने उसका यथोचित स्वागत सत्कार किया। कुछ दिन उनका आतिथ्य-ग्रहण करने के पश्चात् वापिस मथुरा जाने की अभिलाषा व्यक्त करते हुए उसने महाराज समुद्रविजय से कहा कि-देव । प्रब में अपनी राजधानी को लौटना चाहता हूँ। मेरे हृदय की प्रबल अभिलापा है कि मेरे प्रिय वयस्क ओर गुरु वसुदेव कुमार भी मेरे साथ मथुरा चल और कुछ दिन मेरे वहाँ रह कर मुझे कृतार्थ करें। ____ इस पर समुद्रविजय ने सहर्ष अनुमति दे दी। अब तो कस वसुदेव को अपने साथ लेकर मथुरा आ पहुँचा । वहां पर कुछ दिन दिल खोल कर स्वागत सत्कार आतिथ्य सम्मान करने के पश्चात् वह वसुदेव से कहने लगा कि हे महाभाग । मेरा हृदय वर्षो से आप के उपकारों से उऋण होने की प्रवल अभिलाषा कर किये हुए है। अभी तक उस इच्छा की पूर्ति का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था, किन्तु अव एक उपाय 'प्रचानक सूझ गया है । मेरे काका देवक की पुत्री देवकी अत्यन्त रुपवती, गुणवती, सुशील और सब कलाओं में निपुण है। मेरी इच्छा है कि प्राप उसका पाणिग्रहण कर अपने पारस्परिक प्रेम की नींव को 'गार भी अधिक गहरा व दृढ़ बनाने की अनुमति प्रदान ___ कस के ऐसे मधुर पीर प्रिय वचन सुन वसुदेव ने उत्तर दिया कि आप जैसा उचित समझ कीजिए, पर इस सम्बन्ध में पूर्व मेरे अग्रज समुद्रविजय आदि गुरुजनों की अनुमति तोले ही लेनी चाहिए । क्यों कि होटों को कोई भी काय विशेषत विवाह प्रादि सम्बन्ध जैसे महत्वपूर्ण कार्य तो अपने वडे वूटे से पूछे विना कभी नहीं करना चाहिए ।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy