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रोहिणी स्वयवर
२४३ ही के हाथ में हैं। अतः आप मेरे साथ चल उससे विवाह कर उसके हृदय को आनन्दित कीजिए।
विद्याधरी के यह वचन सुन वसुदेव अपने बड़े भाई समुद्रविजय की ओर देखने लगे कि इस विषय में उनकी क्या सम्मति है। अपने छोटे भाई के हृदय को बात जान समुद्रविजय ने भी "शीघ्र लोट श्राना" कहकर उन्हें जाने की अनुमति दे दी बड़े भाई की सहमति प्राप्त होते ही वह विद्याधरी वसुदेव को अपने साथ लेकर आकाश में उठती हुई गगन वल्लभपुर की ओर चल पड़ी। वसुदव के विद्याधरी के साथ चले जाने पर समुद्र विजय तथा उनके अन्य भाई बन्धु भी शोरीपुर आकर अपना राज्य काज देखने लगे।
उधर वसुदेव उस विद्याधरी के साथ गगन बल्लभपुर पहुँच सर्व प्रथम अपनी प्राणप्रिया वेगवती से मिले फिर उसकी सहमति से उन्होंने बाल चन्द्रा के साथ भीविवाह कर लिया। __ कुछ दिनो तक वे उन दोनों पत्नियों के साथ स्वच्छन्द विहार करते हुए वहीं रहे। तत्पश्चात् वसुदेव के हृदय में वपिस धर लौटने की जब इच्छा जागृत हुई ता एणी पुत्र की पूर्व भव की मा देवी ने तत्काल वहाँ पहुच कुमार के लिए रत्नजटित विमान प्रस्तुत कर दिया। यह देख बालचन्द्रा के पिता राजा कञ्चनदष्ट्र ने ओर वेगवती के बडे भाई मानषवेग ने भी बड़े उत्साहपूर्वक दानों पत्नियों को वसुदेव के साथ विदा कर दिया । यहाँ से चल कर वसुदेव अपनी दोनो पत्नियों सहित अरिञ्जय आ पहुचे। वहा महाराज विद्यद्वेग से मिलकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने अपनी पुत्री मदनवेगा और उसके पुत्र अनावृष्टि को ले उसी विमान से गधसमृद्ध नगर की ओर चल दिये। गध समृद्ध नगर के राजा गाधार की पुत्री प्रभावती से मिले
और उसे परिवार सहित विमान मे विठा असित पर्वत नगर आ पहुँचे। वहाँ महाराज सिहदष्ट ने वसुदेव व उनकी सब पत्नियों आदि का घडे उत्साह से स्वागत किया। तत्पश्चात उन्होंने अपनी पुत्रो नीलयशा को भी वसुदेव के साथ कर दिया। यहाँ पर से वे लोग श्रावस्ती श्रा पहुंचे जहाँ में प्रियगु सुन्दरी और वन्धुवती को साथ ले महापुर आये। वहाँ मे सोमनी को इलावर्धन नगर से रत्नावती तथा चारुहासिनी पौष्ट्र भश्वसेना, पदमावति, कपिला, मित्रमी, धनश्री आदि पत्नियों को लेते