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________________ २४२ __ जैन महाभारत mmmmmmmm और आमोद के वातावरण मे रूधिरराज ने जरासन्ध आदि सब सब राजा महाराजाओं की उपस्थिति मे शुभ लग्न और मुहूर्त देख रोहिणी का वसुदेव के साथ बडी धूमधाम से विवाह कर दिया। उपस्थित नृपतिवृन्द वर-वधु को आर्शीवाद देकर तथा नाना प्रकार के उपहारों से सम्मानित कर अपनी अपनी राजधानियो को विदा होने की तैयारियां करने लगे। विदाई से पूर्ण रोहिणी के पिता महाराज रूधिरराज ने विवाहोत्सव के अवसर पर उपस्थित सब राजा महाराजाओं व अन्य अथितियो को खूब आदर सत्कार से प्रसन्न किया। सब लोगों के चले जाने के पश्चात् भी उन्हो ने आग्रह करके वसुदेव तथा उनके समुद्र विजय आदि भाइयों व कस आदि अन्य यादवों को अपने यहाँ एक वर्ष तक ठहराये रक्खा । वर्ष के ३६५ ही दिन नित्य नये आनन्द मंगल और नृत्यगान आदि उत्सव होते रहे। एक बार वसुदेव ने रोहिणी से पूछा कि प्रिये स्वंयवर सभा में देश देशान्तरो के एक से एक बढ़ कर रूपवान, गुणवान, शूरवीर राजा महाराजा उपस्थित थे किन्तु तुमने उनमे से किसी को भी पसन्द न कर मेरे ही गले मे वर माला क्यों डाली । मै तो उस समय एक साधारण वेणु-वादक के रूप में ही वहाँ उपस्थित था। तब रोहिणी ने उत्तर दिया कि-हे नाथ मैं प्रज्ञप्ति विद्या की आराधना किया करती थी उसी से मुझे ज्ञात हो गया कि मेरा पति दसवां दशार्ह होगा और वह स्ववर में वेणु बजावेगा । यही उसकी पहचान होवेगी इसी लिए मैंने आपको पहचान कर आपके गले मे वर माला डाल दी। ____एक समय वसुदेव अपने समुद्रविजय आदि बन्धुओं के साथ रूधिर राज के राजा प्रसाद की छत पर बैठे सुख-पूर्वक गोष्ठि कर रहे थे कि एक दिव्य विद्याधरी ने आकाश से उतर कर सब लोगो को यथोचित् आह्वादित किया । तद्न्तर वह वसुदेव को सम्बोधित कर इस प्रकार कहने लगी हे देव, आपकी पत्नी वेगवती और मेरी पुनी बालचन्दा आपके चरणों मे प्रणाम कर प्रार्थना करती है कि आप उनको दर्शन देकर कृतार्थ करे। क्यों कि इस समय मेरी पुत्री पालचन्द्रा के प्राण भापके
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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