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रोहिणी स्वयवर
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के रथ सारथी और घोडों को ठिकाने लगा दिया । वसुदेव के इस अद्भुत रण कौशल को देख सब लोग शत् शत् मुख से उनकी प्रशसा करने लगे । किन्तु अपनी इस असफलता पर समुद्रविजय का मुखमारे क्रोध के तमतमा उठा। आव देखा ना ताव उन्होंने रौद्रास्त्र नामक हजार फलको वाला बाण छोड दिया । वसुदेव ने भी इधर से उन समस्त शस्त्रों की शक्ति को निष्प्रभ कर देने वाला ब्रहाशिर शस्त्र छोड़ दिया । उस शस्त्र ने छूटते ही समुद्रविजय के रोद्रास्त्र के टुकडे टुकड़े कर डाले |
वसुदेव अव तक समुद्रविजय के समक्ष ऐसा हस्तलाघव प्रदर्शित कर रहे थे कि जिसकी समता में ससार के बड़े बड़े युद्ध-विशारदों की कला भी नहीं टिक सकती थी। वे अब तक आक्रमणात्मक युद्ध न कर सुरक्षात्मक युद्ध ही करते रहे । और इस प्रकार अपना शस्त्रसंचालन कौशल भी साथ ही साथ दिखाते रहे । अन्त मे उन्होंने एक ऐसा बाण मारा जो सीवा समुद्रगुप्त के पैरों में जा गिरा। इस वाण पर लिखा हुआ था कि "आपका भाई वसुदेव जो विना पूछे घर से निकल गया आज सौ वर्ष के पश्चात् आपके चरणों में प्रणाम करता है ।"
यह पढ़ते ही समुद्रविजय ने अपने शस्त्रास्त्र छोड दिये और वे तत्काल रथ से नीचे उतर कर अपने भाई की ओर चल पडे । उधर वसुदेव कुमार भी पैदल ही आगे बढ आये । और समुद्रविजय के चरणों में गिर पडे । ममुद्रविजय ने उन्हें उठा गले से लगा कर उनके मस्तक को प्रेमाश्रुओं से तर कर दिया ।
वसुदेव और समुद्रविजय इन दोनों भाइयों को इम प्रकार परस्पर प्रेम पास में आबद्ध हो एक दूसरे को आलिंगन करते देखा तो उनके अक्षोभ्य आदि दूसरे भाई भीं तत्काल वहाँ आ पहुचे । इस प्रकार सव भाई एक दूसरे से मिल कर स्नेहा की वर्षा करने लगे ।
जरासन्ध को यह ज्ञात हुआ कि वसुदेव समुद्रविजय का छोटा भाई है उसका क्रोध भी शान्त हो गया । इस प्रकार कुछ समय पूर्व जहाँ मारवाट और सघर्ष की बातें हो रही थीं, वहीं अब चारों और शान्ति का अखण्ड साम्राज्य स्थापित हो गया हर्ष ओर आनन्द के बाजे बजने लगे । रोहिणी तो वसुदेव की इस वीरता और विजय का समाचार सुन मारे खुशी के फूली नहीं समाती थी । जहाँ देखो वहीं आनन्द बधाइया और खुशी के गीत गाये जा रहे थे । ऐसे ही हर्ष
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