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________________ कनकवती परिणय १६३ आप जो कुछ भी कहेंगे मैं प्राणप्रण से उस कार्य को पूरा करने का पूरा-पूरा प्रयत्न करू गा । आप नि सकोच भाव से आदेश दीजिए कि आप इस जन से क्या कार्य लेना चाहते हैं ?" ___ तब कुबेर कहने लगे-आप को यह तो ज्ञात ही होगा कि यहां के महाराज हरिश्चन्द्र की कनकवती नामक राजकुमारी का स्वयवर होने वाला है। इसलिए आप उसे जाकर मेरा यह सदेश दे दीजिये कि कुबेर स्वय तुम्हें अपनी पटरानी बनाना चाहता है। इसलिए तुम ऐसे दुर्लभ अवसर को हाथ से न जाने दो। आज तक ऐसा सौभाग्य किसी मानवी को प्राप्त नहीं हुआ कि मनुष्य योनि में जन्म लेकर भी देवी __ कहलाये। तब वसुदेव ने कहा-हे देव ! मुझे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है पर आप यह ता बताएँ कि मैं कनकवती के पास पहुँच कैसे सकूगा। क्योंकि सैंकडो पहरेदारों के रहते हुए अन्त पुर में उसके पास पहुचना मेरे जैसे साधारण व्यक्ति के लिए कैसे सम्भव हो सकेगा? कुबेर ने कहा-आपका कथन सवेथा सत्य और स्वाभाविक है। सामान्यतया राजकुमारी के पास मनुष्य तो क्या कोई पखेरू भी नहीं फड़क सकता । किन्तु इस समय तो तुम मेरे आदेश से जा रह हो इस लिये मेरे प्रभाव से पहुचने में तुम्हे किसी प्रकार की कठिनाई का सामना न करना पड़ेगा। तुम वायु की भांति निर्विघ्न रूप से कनकवती के पास जा पहुँचोगे। इस पर वे वहां जाना स्वीकार कर अपने निवास स्थान पर लौट आए । वहां आकर उन्होंने अपने बहुमूल्य वस्त्राभरण उतार दिए और साधारण सेवक के समान वस्त्र धारण कर लिए । उन्हें इस प्रकार साधारण सेवक के रूप में कनकवती के पास जाते देख कुबेर ने कहातुम ने सुन्दर वस्त्र क्यों उतार दिये । शोभनीय वस्त्रों से ही तो मनुष्यों का दूमरों पर प्रभाव पड़ता है।' वसुदेव ने उत्तर दिया-इसके लिए वस्त्रों की कोई आवश्यकता नहीं, मनुष्य चाहे कैसे ही वस्त्रों में क्यों न रह उसकी वाणी में किसी दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता चाहिये वह अपनी मधुर वाणी से सब लोगों को अनायास ही वश में कर सकता है । तब कुबेर ने उनकी सफलता की कामना करते हुए वसुदेव को वहां से सहर्ष बिदा किया। कुबेर के यहा से वसुदेव विदा होकर राजा हरिश्चन्द्र के राज
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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