________________
जैन महाभारत
प्रासादों मे जा पहुंचे। वहां स्वयवर महोत्सव के कारण इतनी धूम-धाम चहल-पहल और भीड़-भाड थी कि कहीं तिल धरने को भी स्थान नहीं था। किन्तु कुबेर के आशीर्वाद के प्रभाव से वे अदृश्य रूप से बिना किसी विघ्न बाधा से इस प्रकार आगे बढ़ते गए मानो जन शून्य मार्ग पर अकेले जा रहे हो।
शन. शनैः वे राजमहल के प्रमुख द्वार पर जा पहुंचे। इस द्वार में प्रवेश करते ही उन्हे अत्यन्त सुन्दर और समान आयु वाली स्त्रियों का एक दल तथा इन्द्र नीलमणी द्वारा निर्मित एक ऐसा स्थान दिखाई दिया. जिसे देख कर वे विस्मित हो गए।
इस स्थान से आगे बढ़ने पर वसदेव राजमन्दिर के दूसरे दरवाजे पर पहुंचे। यहां पर ध्वज दडयुक्त सोने का एक ऐसा स्तम्भ था । जिस पर रत्ननिर्मित पुतलियां कूद रहीं थीं । यहां से आगे बढ़ने पर वसुदेव को राज मन्दिर, का तीसरा द्वार मिला । जहाँ दिव्य वस्त्राभूषणों के विभूषित अप्सरा के समान बहुत सी स्त्रियां उन्हे दिखाई दीं । पश्चा वे वहां से चौथे द्वार पर आये । चौथे दरवाजे पर वसुदेव को देखा पर ऐसी भूमि दिखाई दी कि जहा जल का भ्रम होता था। और वह ऐसा प्रतीत होता था कि जल पूर्ण सरोवर की तरग मालाओ पर हर कारडव आदि जलचर पक्षी किलोलें कर रहे थे। यहाँ की दीवारें इतन निर्मल और चमकदार थीं कि सुन्दरियों को शृगार के समय दर्पण क भी आवश्यकता न रहती थी।
इस प्रकोष्ठ को पारकर वसुदेव पाँचवे प्रांगण मे जा पहुंचे। यह के सभी कुट्टिम (फर्श) मणिमरकतमय थे। रत्न जटित पात्रो मे विवि उपकरण लिये हुए सुन्दिरयाँ इधर से उधर बड़ी शालीनता के साथ छ जा रही थीं। छठे कक्ष मे पहुंचने पर वसुदेव ने वहाँ की भूमि को चा
ओर से विकसित कमल पुष्पों से विभूषित पद्म सरोवर के समान अत्यन मनमोहक रूप से सुसज्जित देखा।
अब सातवे द्वार पर पहुँचते ही वसुदेव को ज्ञात हुआ कि इस द्वा में प्रवेश करना बड़ा कठिन है। साथ ही इस कड़े पेहरे को देख व वसुदेव को निश्चय हो गया कि अवश्य यही अन्त पुर का प्रमुख द्वार है
इतने में सखियों की बातचीत से वसुदेव को विदित हो गया।