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जन महाभारत
की थी। उसी समय से यह उद्यान लक्ष्मीरमण कहलाने लगा।
इसी समय कुमार ने देखा कि असख्य ध्वजा पताकाओं से सुशो. भित एक चलते-फिरते सुमेरू पर्वत के समान विशाल विमान धीरे-धीरे
आकाश से नीचे उतरता आ रहा है । उस विमान मे बैठे हुए बन्दीजन मगल वाद्य बजाते हुए जय जयकार की ध्वनियो से गगन मंडल को गुजा रहे हैं।
इस प्रकार उसे देखते ही उन्होंने लोगों से पूछा कि यह अद्भुत विमान किस का चला आ रहा है। तब परिचित देव दूत ने उन्हें बताया कि हे महाभाग ! यह विमान कुबेर का है। वे कनकवती के स्वयवर को देखने के लिए इस विमान में बैठ कर यहां पा रहे है। सचमुच वह कनकवती धन्य है जिसके स्वयंवर में कुबेर आदि बड़े-बड़े देवगण भी इस प्रकार बड़ी सजधज व धूमधाम के साथ पधार रहे हैं।
देखते-देखते कुबेर का विमान उद्यान में उतर आया । विमान से बाहर आकर कुबेर ने ज्यों ही उपवन में पॉव रखा कि वसुदेव उन्हें दिखाई दे गये । उनके दिव्य रूप को देख कुबेर भी मन्त्र मुग्ध से रह गये। उन्होंने अगुली के सकेत से वसुदेव को अपने पास बुला लिया, सकेत पाते वे ही सहर्ष कुबेर के पास जा पहुँचे । कुबेर ने बड़े आदर और स्नेह के साथ उन्हें अपने पास बैठा कर उन्हें सम्मानित किया। थोड़ी ही देर मे पारस्परिक परिचय और कुशल प्रश्न के पश्चात् दोनों में सख्य भाव हो गया। कुबेर को अपने ऊपर इस प्रकार प्रसन्न देख वसुदेव ने बड़े विनय के साथ निवेदन किया कि देव ! मुझे आप अपना सेवक ही समझिए और मेरे योग्य कोई सेवा हो तो आज्ञा दीजिए। मैं आपकी कुछ सेवा कर अपने आपको कृतार्थ समझूगा। ____ इस पर कुबेर ने बड़े स्नेह भरे चेहरे से उत्तर दिया क्या आप वस्तुत हमारे किसी कार्य में सहायक बनना चाहते हैं, यदि आप कोई कार्य करना चाहते हैं तो मैं आपको इसी समय एक आपके योग्य काये बता सकता हूँ। उस कार्य के लिए मुझे आप जैसा चतुर और बुद्धिमान् दूसरा कोई व्यक्ति दिखाई नहीं देता। इसीलिए मैं यह कष्ट आप ही को
देना चाहता हूँ। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप अपनी व्यवहार-निपुणता 1 से मेरा वह कार्य अवश्य सम्पन्न कर सकेंगे।
वसुदेव ने उत्तर दिया "मुझे आपकी आज्ञा शिरोधार्य होगी।