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कनवकती परिणय
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अपने यहा आने का कारण बतला कर मेरी उत्सुकता दूर करो । इस पर चन्द्रातप ने उत्तर दिया कि
हे कुमार मैं आपके यहां से विदा होकर सीधा पेढालपुर के उपवन __ में विहार करती हुई राजकुमारी कनकवती के पास पहुचा । उसे मैंने
आपका परिचय दिया । साथ ही अपनी विद्या के बल से तत्काल आपका एक चित्र बनाकर उसे दे आया हूँ। आपके रूप गुणों की प्रशसा सुनकर व आपके रूप को देखकर वह आप पर मोहित हो गई है। उसने आप के चित्र को लेते ही पहले तो बडी श्रद्धा-पूर्वक उसे प्रणाम किया । फिर हृदय से लगाकर पागलों की भॉति प्रमाशु बहाती हुई कहने लगी कि प्राणनाथ इस दासी को दर्शन देकर आप कब कृतार्थ करेंगे । इससे ज्ञात होता है कि इसका हृदय पूरी तरह आप में अनुरक्त है। स्वयवर में आपको छोड़कर अन्य किसी का वरण नहीं करेगी। इसलिए हे महा भाग, आप तत्काल स्वयवर सभा में पहुचने का प्रयत्न कीजिए
और शीघ्रातिशीघ्र यहा से प्रस्थान की तैयारी शुरू कर दीजिये। स्वयवर में अब केवल दस दिन शेष रह गये हैं। यदि आप समय पर नहीं पहुच पाये तो निराशा के सागर में डूबती हुई कनकवती कुछ भी आलम्बन न पा आपके वियोग में तड़प २ कर अपने प्राण दे देगी।
यह सन वसदेव के चन्द्रातप का धन्यवाद करते हुए कहा कि भद्र तुम ने जो कुछ कहा वह सर्वथा सच है। मैं उसके अनुसार कार्य करने का प्रयत्न करूगा । प्रात काल होते ही अपन सब सज्जनों से परामर्श के पश्चात् यहा से प्रस्थान कर दू गा। तुम प्रमद वन में मेरी प्रतीक्षा करना । मैं वहाँ तुम्हें मिलू गा। __ वसुदेव को इस प्रकार प्रस्थानोद्यत कर चन्द्रातप अपने स्थान को लौट गया। प्रभात होते ही वसुदेव अपने सब सज्जनों तथा प्राण'प्रिया पत्नी सुकोशला की अनुमति लेकर पेढालपुर के लिए प्रस्थान कर गये। वहाँ पहुँचने पर महाराज हरिश्चन्द्र ने उनका स्वागत कर, उन्हे लक्ष्मीरमण नामक उद्यान में ठहराया। उद्यान तरह-तरह के वृक्ष, लता, पुष्प तथा फलों से सुशोभित हो रहा था। इसके नाम के सम्बन्ध में किसी ने वसुदेव से बतलाया कि प्राचीन काल में श्री नमिनाथ भगवान् का समवसरण इस उद्यान में हुआ था। उस समय देवांगनाओं के साथ स्वय लक्ष्मी जी ने श्री नमिनाथ भगवान के सामने रास क्रीड़