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जैन महाभारत
लेती, कभी चूमती प्यार लेती हुई और बाते करने लगती, और कहती कि अब तुम कब आओगे। वह कौन सा सौभाग्य शाली दिन होगा जब तुम से साक्षात्कार भेट हो सकेगी। कभी वह सोचती कि पिताजी भी न जाने कितने निष्ठुर हैं । जो स्वयवर मे इतनी देर कर रहे हैं। आज इसी क्षण क्यो नहीं स्वयवर कर देते। ऐसी नाना प्रकार की कल्पनाओं में उलझी हुई कनकवती के लिए एक एक पल युगों के समान भारी बन गया।
चन्द्रातप विद्याधर कनकवती के यहाँ से विदा हो कोशला नगरी में जा पहुचे । वहाँ पर वसुदेव विद्याधरराज कौशल के महलों में अपनी रानी सुकोशला के साथ वसुदेव आनन्द पूर्वक सो रहे थे। उसने वहां पहुंचते ही वसुदेव को जगा दिया।
शैय्या से उठते ही वसुदेव ने अपने सामने एक अपरिचित युवक को बेठे देखा । इस अष्ट पूर्व युवक को सहसा अपने शयन कक्ष में उपस्थित देखकर भी वसुदेव न तो चकित ही हुए और न ध ही
और न भयभीत ही हुए। वे सोचने लगे कि यह अज्ञात पुरुष निश्चित ही कोई असाधारण जीव है। क्योकि इस प्रकार सुरक्षित महल में आकारागामो सिद्ध पुरुष के सिवाय रात्रि के समय कोई आ नहीं सकता । अवश्य ही यह कोई विद्याधर है । परन्तु समझ में नहीं आता कि यह कोई मेरा शत्रु है जो मुझे उड़ा ले जाकर मार डालना चाहता है या हितेषी मित्र है । पर शत्रु होता तो इस प्रकार मुझे जगाता क्यों। वह तो पहले की भॉति चुपचाप उठा ले जाता । अतः यह कोई शुभ चिन्तक ही है । पर मुझे इसके हृदय के भाव कैसे ज्ञात हो सकते हैं क्योंकि यदि मै इसे बात चीत करता हूँ तो प्रिया सुकोशला की नींद में बाधा पडेगी अतः कोई ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे सुकोशला की निद्रा में बाधा न पड़े और घर आये अतिथि से बातचीत न करने की धृष्टता भी न प्रतीत हो। तब वे शनैः२ अपने पलंग से उठकर धीरे धीरे पर रखते हुए शयक कक्ष से बाहर निकल आये । ज्यों ही वे कमरे से बाहर निकल कर अलिन्द मे पहुचे कि चन्द्रातप ने उन्हें प्रणाम किया । उसे देखते ही वे पहचान गये कि यह तो वही विद्याधर है
जिसने कनकवती का परिचय दिया था। तब उन्होने बड़े मधुर स्वर E से कहा कि भद्र तुम्हारा स्वागत हो । सुख पूर्वक बैठो और इस समय