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ही है, कहानी रूप में है, फिर भी यथाशक्य और यथास्थान सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन के शिक्षा पूर्ण उपदेशो का सचार है । जो भावी जीवन निर्माण मे सहायक सिद्ध होगा। इस प्रकार अनेक तथ्यो का ध्यान रखते हुये यह महाग्रन्थ तैयार हुअा है।
जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि जैन परम्परा महाभारत को धार्मिक ग्रन्थ स्वीकार नही करती, और न ही उसके पास प्रचलित महाभारत की भॉति सकलित ग्रन्थ ही है। तथापि मूल
आगमो के परिशीलन से ज्ञात होता है कि महाभारत अवश्य हुआ था किन्तु उसका मूल कारण अकेला कौरव-पाण्डवों का वैर ही नही, श्रीकृष्ण और जरासघ के बीच होने वाला युद्ध था । कौरव-पाण्डव युद्ध तो एक गृह-युद्ध था, परन्तु वह हुआ उस युद्ध के साथ ही क्योकि उस समय के नरेश दो भागो मे विभक्त हो चुके थे, इस युद्ध, मे वासुदेव प्रति वासुदेव के द्वारा बढते हुये अत्याचारो को समाप्त कर सोलह हजार राजानो पर अपना अधिकार जमाता है।'
इस युद्ध का विस्तृत वर्णन सघदास गणीवाचक कृत वसुदेव हिन्डी आचार्य जिनसेन रचित हरिवंश पुराण, आचार्य हेमचन्द्र कृत त्रिषष्ठी शलाका पुरुष चरित्र, देवप्रभ सूरी का पाण्डव चरित्र आदि ग्रन्थो मे मिलता है । यही ग्रन्थ जैन परम्परा के महाभारत ग्रन्थ है जिनका कालमान क्रमश लगभग विक्रम संवत् ७३३, ८४०,१२३० तथा १२७० है। इससे पूर्व रचित ग्रन्थ उपलब्ध नही है । तो फिर इन ग्रन्थो का आधार क्या रहा होगा, क्या इससे पूर्व महाभारत साहित्य था ही नही ? नही, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता । मूल आगम तथा संस्कृत टीकामो मे इस सबन्ध मे उल्लेख है। जैसे कि गडिकानुयोग के भेद वर्णन करते हुए बताया गया 'से किं त गडियानु योगे, गणहर गडियाओ, चक्कहर गडियानो, दसार
१ समयाग सूत्र।