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परिश्रम और लगन सफलता की क जी है । मेने जैन महाभाग्न के ग्रन्थ निर्माण, सोज गादि का निश्चय कर लिया। बीन बान में अन्य कार्यों की ओर भी ध्यान जाता रहा और वे उम मार्ग में बाधक ही बनते रहे । ऐमा होता ही है कि व्यक्ति जितना किमी कार्य को सोचता है परिस्थितिया उतनी ही बाधक बनती नली जाती है । और उसके लिए सदा समय माधन और योग्यता प्रादि की अपेक्षा रहती है । अभिलापा बनी रही, अन्त में एक समय पाया और मेने अागमो, ग्रन्यो अादि का अवलोकन किया। पता चला कि जैन धर्म के पास प्रचलित महाभारत से कही अधिक मान्यता है और सामग्री का प्रचुर भडार है, प्राकृत सस्कृत, हिन्दी, गुजराती तथा प्रान्तीय भापायो के भिन्न भिन्न ग्रन्थोमे विस्तृत रूप मे उल्लेख मिलता हैं। किन्तु उनमे श्वेताम्बर-दिगम्बर मान्यताप्रो में अन्तर, आम्नायो के भिन्न-भिन्न मत मतान्तर और सबसे बड़ी समस्या थी प्रचलित महाभारतका समन्वय करना । जिनमे कही कही आकाश-पाताल तक का अन्तर दिखाई देता है।
खैर । इन सभी कठिनाइयो को ध्यान में रखते हुए एक ही निश्चय किया कि इसका आधार जैन धर्म की मान्यतानुसार ही हो । रही परस्पर की मान्यताप्रो के अन्तर की बात, सो तो उसमे भूलभूत प्रागम मान्यता को ही महत्त्व दिया जाता है। यह उसका सम्प्रदाय पक्ष नही, अनेको दृष्टियो से समर्थन होता है । कही कही दिगम्बर आम्नाय की घटना विस्तृत और अन्तरवाली होने पर भी जहां-तहाँ उन घटनाओ को भी स्थान देने का पूरा ध्यान रक्खा
गया है । और श्वेताम्बर परम्परा के अन्य ग्रन्थो के फटनोट भी 7 दिये गये हैं।
कार्य प्रारम्भ किया, वर्ष बीत गये और समाप्त न हो पाया। अनेको विघ्न-बाधाये आई । अन्त मे यह प्रथम खण्ड द्रोपदी स्वयवर पर्यन्त पूर्ण होकर आपके हाथो मे आ रहा है। यह ग्रन्थ गद्य रचना