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मदनवेगा परिणय में प्रवश्य तुम्हारा वसुदेव के साथ मिलन करवा दूंगी।' यह कहते ही वद वसुदेव को ढ ढने के लिये चल पडी। उमने अपनी दिव्य विद्याओं के प्रभाव मे जान लिया कि वसुदेव इम समय श्रावस्ती नगरी में हैं, अतः वह तत्काल वहा पहुँची और वसुदेव से निवेदन किरने लगी हे राजपुत्र । मैं गधसमृद्धि नगर के अधिपति की पुत्री हूँ। एक बार मैं अपनी ससि वेगवती से मिलने के लिये स्वर्णाभपुर में गई थी। वहा तुम्हारी प्रिया सोमश्री जो तुम्हारी विरह वेदना स ाकुल व्याकुल है, दिखाई दी और उसने ही यहां अब मेरे को सदेश टेकर आपके पास भेजा है। मामश्री का नाम सुनते ही वसुदेव ने उत्सुकता भरी दृष्टि में उसकी ओर देखकर पूछा-क्या सचमुच सोमश्री ने तुम्हें भेजा है ? इस पर प्रभावती वाली आप विश्वास रखिये उमी ने ही मुझे भेजा है, प्रापको इतने विचार करने की प्रावश्यकता नहीं जब कि सारा विश्व पाशा पीर विश्वास पर ही गतिशील है। अतः श्राप मेरे साथ चलिये। वसुदेव ने उत्तर में कहा सुन्दरी । मैं वहां चलने को प्रस्तुत
किन्तु मामी ने जो कहा है उसे सनाकर पहले मेरे हृदय की जिशाला को शांत कर दो। वमदेव को इस प्रकार सोमश्री के वचनो फे सुनने के लिये पातुर होते देख उसने कहा-हे सौम्य । उसका यही निवेदन है कि यदि आप मुझे आकर मुक्त नहीं करायेंगे तो अब मैं प्रापफे वियोग में प्राण त्याग दूगी। पतिव्रता का यही धर्म है।' यह सुनते ही यमदेव ने शीघ्र चलने का इशारा किया। संकेत पाते ही वह स्वरित गति से उन्हें उड़ाकर स्वर्णाभपुर में ले आई।
पसदेव फोटेखतेही सोमधी को मानोनवजीवन प्राप्त हो गया। अब उनकी प्रसन्नता का फोई पारावार न था। वह वमुदेव के साथ प्रानन्दपूर्वफरहने का विचार करने लगी। किन्तु उसे यहा रहते मानस वेग का भी भय था, वह जानती थी कि यदि मानस वेग को वसुदेव के मेरे पास रहने का पता लग गया तो वह न जाने हम दोनों को क्या दशा कर साल । इसलिये नोमी ने यथा सम्भव वसुदेव को अपने पाम छिपापर रखने का प्रयत्न दिया। इस प्रकार गुप्त रूप मे रहते वमुदेव को अभी गादी दिन घोते थे कि मानमवेग को उनकी उपस्थिति का पता पल गरा।
मानसंवा में तत्काल वहां पहुँच, वसुदेव यो परड़ लिया । उन पर जाने का समाचार सुनते ही अनेक विद्याधरी ने आलर