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जैन महाभारत उन्हे मानसवेग के बन्धन से मुक्त कर दिया। पर वह दुष्ट भी कब चुप रहने वाला था। प्रतिदिन वसुदेव से उलझ पड़ता । नित्य कलह हाने लगा । पर किसी प्रकार भी वसुदेव को पराजित होते न देख मानसवेग ने वैजयन्ती नगरी के राजा बलवीरसिंह के पास जाकर वसुदेव की शिकायत करते हुए कहा कि वसुदेव ने सोमश्री का बलात् अपहरण कर लिया है, पहले उसका विवाह उस ही से होना निश्चित हुआ था। इसीलिए वह उसे उठा लाया। किन्तु वसुदेव ने उसका यहां पर भी पीछा न छोड़ा और यहां आकर उसके साथ गुप्त रूप से रहने लगा। अपनी बहिन वेगवती का विवाह मैंने सहर्ष वसुदेव के साथ कर दिया है। अतः अब वह सोमश्री के साथ अपना सम्बन्ध सर्वथा छोड़ दे। __वसुदेव ने उत्तर दिया-"मानसवेग की ये सब बातें सर्वथा असत्य हैं। सोमश्री का विवाह मेरे ही साथ हुआ था। और वेगवती ने भी अपनी इच्छा से और कपटपूर्वक मेरे साथ विवाह किया। उसको तो उस विवाह की सूचना भी नहीं थीं।"
इस प्रकार मानसवेग की असत्यता और धूर्तता प्रकट हो जाने पर वह अपना सा मुंह लेकर रह गया। पर अब उसने उनके साथ प्रत्यक्ष संघर्ष ठानकर युद्ध करने का निश्चय कर लिया। वह अपने नील कण्ठ
और सूर्यादिक खेचर साथियो को साथ ले वसुदेव से युद्ध करने के लिए आ डटा । मानसवेग को इस प्रकार अत्याचार करते देख वेगवती की माता अंगारवती ने वसुदेव को एक दिव्य धनुष और दो कभी वाणों से खाली न होने वाले तुणीर दिये। वेगवती की सखी प्रभावती ने उन्हे प्रज्ञप्ति विद्या प्रदान की। इस प्रकार विद्या और शास्त्रास्त्रों को प्राप्त कर वसुदेव को परम हर्ष हुआ। उन शस्त्रों के बल से उन्होंने देखते देखते अपने सब शत्रुओं को परास्त कर दिया। वे मानसवेग को बन्दी बना लाये, पर उसकी माता अंगारवती ने उसे छुड़ा दिया। अब तो मानसवेग उनके साथ बड़ी नम्रता का व्यवहार करने लगा। अव वे सोमश्री के साथ विमान में बैठ महापुर आ पहुँचे, और वहीं पर सानन्द रहने लगे।
इस प्रकार मानसवेग तो हिम्मत कर बैठा, पर उसका कपटी साथी सूर्पक अभी तक अनेक प्रकार के छल-छिद्रो और मायाजाल से उनका पीछा करता रहा । एक बार वह घोड़े का रूप धारण कर महापुर आया और वसुदेव को उठा ले चला। यह देखते