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जैन महाभारत
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भेजा। आज वसुदेव को प्रियगु मन्जरी के सन्देश वाहक के साथ जाने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं हुई । वे चुपचाप उसके साथ चल पड़े। उधर प्रियगुमञ्जरी तो पहले से ही प्रतीक्षा बैठी थी । अतः उसने वसुदेव को देखते ही आगे बढ़कर बड़े उत्साह के साथ उनका स्वागत सत्कार किया । और महलों मे ही गन्धर्व - विधि से विवाह कर लिया । विवाह के १८ वें दिन प्रियंगुमञ्जरी ने अपने पिता महाराज ऐगीपुत्र को इस विवाह की सूचना दी। इस शुभ समाचार को सुनकर महाराज अत्यन्त प्रसन्न हुए । उन्होने वसुदेव का खूब आदर सम्मान कर बहुत दिनों तक अपने महलो मे ही रख कर उन्हे अनेक प्रकार से सन्तुष्ट किया । + +
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-: सोमश्री का पुनर्मिलन:
पाठकों को स्मरण होगा कि एक बार सोमश्री सहसा ही वसुदेव की शैया से लुप्त हो गई थी, वस्तुतः उसे उनकी पत्नी वेगवती का भाई मानसवेग विद्याधर अपनी राजधानी स्वर्णाभपुर में हरकर ले गया था। इधर एक बार वसुदेव को भी मारने की इच्छा से उड़ाकर कहीं ले जाया गया था किन्तु वसुदेव ने तो उससे येन केन प्रकारे अपना पीछा छुड़ा लिया और अब वे सोमश्री के वियोग मे ही व्याकुल रहने लगे ।
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उधर सोमश्री वसुदेव के विरह में अत्यन्त व्याकुल रहती थी । उसकी इस दुखित अवस्था को देख गन्धसमृद्धि नामक नगर के महाराज गधारपिंगल की राजकुमारी प्रभावती ने जो एक बार स्वर्णभपुर में आयी थी और वहॉ सोमश्री से भेंट होने पर वह उसकी सहेली बन गई थी । उसने उसे सान्त्वना देते हुए कहा कि हे सखी, तुम इस प्रकार व्याकुल मत हो, मैं जैसे भी होगा तुम्हे तुम्हारे पति से मिला दूँगी ।
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सोमश्री ने उदास भाव से उत्तर दिया, वेगवती भी तो मुझे इसे ही प्रकार धैर्य बंधाकर गई थी, पर अभी तक तो उसका कहीं कुछ पता नहीं लगा । मेरे जैसे अभागिन के भाग्यों में अब फिर से उनसे भेंट कहां पर लिखी है ।
तब प्रभावती ने अत्यन्त विनम्र शब्दों में उसे आश्वासन दिया कि मैं वेगवती की भांति कभी तुम्हे धोखा नहीं दे सकती । विश्वास रक्खो