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जैन महाभारत हे प्रभो ! आपका उस महिष के साथ ऐसा कौनसा वैर था, जिसके कारण आपने उसका पैर काट डाला ?' तब केवली भगवान् ने इस प्रकार उत्तर दिया___ बहुत समय पहले यहां पर अश्वग्रीव नामक एक अर्द्ध चक्रवर्ती राजा था। उसके हरिश्मश्रु नामक मन्त्री बड़ा नास्तिक था। परम
आस्तिक महाराजा और महानास्तिक मन्त्री में सदा विवाद होता रहता। धीरे-धीरे उनका विरोध बहुत अधिक बढ़ गया । अन्त में वे दोनों त्रिपृष्ट और अचल के (वासुदेव-बलदेव राजाओं) द्वारा मारे जाकर सातवें नरक के अधिकारी हुए । वहाँ से निकल कर वे दोनों असख्य योनियों में भ्रमण करते रहे । अन्त में अश्वग्रीव नामक उस आस्तिक राजा का जीव तो मेरे रूप मे आया । और वह हरिश्मश्रु नास्तिक भैसे के रूप में आया। पूर्व जन्मके उक्त वैर के कारण ही मैंने उसका पैर काट डाला । यहाँ पर मृत्यु के बाद उसने लोहिताक्ष नामक असुर का शरीर पाया है। अन्य सुरासुरों के साथ वह भी मुझे वन्दन करने आया है। इस प्रकार हे राजन् यह ससार चक्र बड़ा ही विचित्र है। किन्तु यहाँ प्रत्येक बात मे कार्य कारण की शृखला विद्यमान है । पर साधारण अज्ञानी जीव प्रत्येक बात के वास्तिक कारण को नहीं जान पाता इसीलिये वह भवभ्रमण करता रहता है।।
उसी चिरस्मृति के लिए लोहिताक्ष असुर ने ये तीनों रत्न निर्मित मूर्तियां यहा स्थापित करवाई हैं । और कामदेव सेठ के वश में इस समय कामदत्त नामक एक महान धनवान् श्रेष्ठी है । उसके बन्धुमती नामक एक पुत्री है। किसी नैमित्तिक ने उसे बताया था कि जो इस मन्दिर के मुख्य द्वार को खोलेगा वही बन्धुमती का पाणी ग्रहण करेगा। इस पर वसुदेव ने तत्काल मन्दिर के प्रमुख द्वार को खोल डाला फलत कामदत्त ने वन्धुमती के साथ उनका विवाह कर दिया। __महाराज ऐणीपुत्र की कन्या प्रियगुमञ्जरी भी जो बन्धुमती सखी थी। इस विवाहोत्सव पर अपने पिता के साथ आई । उसने वसुदेव को देखते ही अपना सर्वस्व उन पर न्यौछावर कर दिया । और रात्री
नोट-भरतक्षेत्र के तीन खड जिसमे सोलह हजार देश होते हैं उस पर जिग राजा का शासन होता है उसे अर्द्ध चक्री अर्थात् प्रतिवासुदेव देव कहते हैं। इन मोलह हजार प्रजाशत्तानो के अधिपति को जो युद्ध में परास्त कर राज्य लेता है उसे वासुदेव या नारायण कहते हैं।