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जैन महाभारत.
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हे आये ! मैं उसी विद्युह ष्ट्र के वश में उत्पन्न राजकन्या हूं। मै नदी के किनारे पर महाविद्या सिद्ध कर रही हूँ, यह देख मेरा वैरी एक विद्याधर यहाँ आ पहुंचा और वह मुझे नागपाश से बांध गया। परन्तु आपने आकर मुझे बचा लिया । हमारे वंश मे पहिले भी एक केतुमति नामक राजकन्या ने विद्या की सिद्धि की थी। उसे भी किसी ने नागपाश से जकड़ दिया था, जिस प्रकार आपने मेरा उद्धार किया उसी प्रकार अर्द्धचक्री राजा पुण्डरीक ने उसे भी बन्धन मुक्त किया था। और जिस प्रकार राजकुमारी केतुमति पुण्डरीक की प्रियतमा बन गई थी उसी प्रकार मैं भी अब आपकी पत्नी हो चुकी हूँ यह निश्चित समझिये ! यह विद्या जो विद्याधरो को सर्वथा दुर्लभ है आपकी कृपा से सिद्ध हुई है इसलिए आप इसे ग्रहण कर लीजिये। • यह सुन वसुदेव कुमार ने वेगवती को विद्या देने की इच्छा प्रगट की। कुमार की इच्छानुसार बालचन्द्रा ने वेगवती को सिद्ध विद्या दे दी और आकाशमार्ग से अपने नगर को चली गई।
राजकुमारी प्रियंगुमञ्जरी बालचन्द्रा के गगन वल्लभपुर चले जाने के पश्चात् वसुदेव अपने निवास स्थान को लौट गए। वहाँ पहुँच कर उन्होंने दो ऐसे राजाओं को देखा जिन्होंने कुछ समय पूर्व ही दीक्षा ली थी और जो अपने पौरुष को धिक्कार रहे थे। उनकी इस आत्म ग्लानि का कारण पूछने पर उन्होने अपना वृत्तान्त सुनाते हुए कहा कि
श्रावस्ती नगरी में एणीपुत्र नामक एक बड़ा धर्मात्मा राजा है। उसने अपनी पुत्री प्रियगुमन्जरी को विवाह योग्य देखकर स्वयवर का आयोजन किया। स्वयवर का निमन्त्राण पाकर अनेक देश देशान्तरों के नृपतिगण वहाँ उपस्थित हुए। किन्तु राजकुमारी ने उनमें से किसी का भी वरण नहीं किया। इसलिये रुष्ट हो उन राजाओ ने मिलकर महाराज एणीपुत्र के विरुद्ध युद्ध ठान दिया। किन्तु उन्होंने अकेले ही उन सब राजाओ को परास्त कर दिया। इस पर भयभीत हो बहुत से राजा लोग तो पहाड़ों में जा छिपे । कई जंगलों में इधर-उधर मारे-मारे फिर रहे है। क्योंकि लज्जा के कारण पराजित हो वे अपनी राजधानी में जा स्वजनों को मुह भी नहीं दिखा सकते । हम दोनों भी वहाँ से भागकर यहाँ आ पहुंचे और हमने यह तापस वेष धारण कर लिया है। हे महापुरुष ! हमे अपनी इस भीरुता के लिये बड़ा दुःख है।