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जैन महाभारत
चलते चलते वे भद्दिलपुर नामक नगर में पहुंच गये। वहां के महाराज पु'दूराज थे किन्तु उनकी मृत्यु हो जाने पर उनकी पुत्री पुढा पुरुष का रूप धारण कर राज्य कार्य सचालन करती थी । वसुदेव ने बुद्धिबल से जान लिया कि यह पुरुष नहीं स्त्री है । वसुदेव को देखकर। पुद्रा के हृदय में भी अनुराग जाग उठा । उसने वसुदेव से विवाह कर लिया | उसके उदर से पुरंद्र नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो अन्ततोगत्वा उस राज्य का उत्तराधिकारी हुआ ।
एक दिन वसुदेव सोये हुये थे कि अनायास ही दुष्ट अंगारक उनकी पूर्व पत्नी श्यामा की कलहसी प्रतिहारी का रूप धारण कर वहाँ श्रा पहुँचा और उसने उन्हे जगाते हुए कहा कि हे कुमार | श्यामा ने प्रणाम कहा है । तथा उसके पिता ने आपके प्रताप से दुष्ट अंगारक से पुनः राज्य प्राप्त कर लिया है अतः इसी प्रसन्नता के उपलक्ष्य में महाराज और महारानी ने आपको बुलाया है।' इस प्रिय सदेश को सुनते ही वसुदेव ने स्नेहवश हो उसको वहॉ ले चलने के लिए कहा । वह दुष्ट तो यह चाहता ही था कि वसुदेव किसी तरह मेरे साथ चल पड़े, अत वह आज्ञा पाते ही उन्हें अपने साथ ही ले उड़ा। थोड़ी देर के बाद वसुदेव ने विचार किया कि यह मार्ग तो वैताढ्य का नहीं है कहीं शत्रु मुझे छल कर तो नहीं लिये जा रहा है । अत परीक्षा निमित्त उन्होंने उस पर एक मुष्टिका का प्रहार किया । इस पर उस दुष्ट ने तत्काल वसुदेव को वहाँ से नीचे बहती हुई गंगा नदी में फेंक दिया । वसुदेव तैरने मे बड़े चतुर थे । इसलिए वे नदी के प्रवाह में से तैरकर पार हो गये । प्रातःकाल होते ही वे तटोतट चलते-चलते एक नगर में जा पहुचे । नगर निवासियों को देखकर उन्होंने पूछा कि गंगा नदी के तट पर भूषणस्वरूप यह कौनसा नगर है । उसने कहा कि यह इला - वर्धन नामक नगर है । वह नगर वास्तव में वड़ा सुन्दर था । उस नगर की शोभा को देखते-देखते वे एक भद्र नामक सार्थवाह की दुकान पर जा पहुचे । उसने उन्हें देखते ही बड़े सत्कार पूर्वक अपनी दुकान पर बैठा लिया ! उनके वहा बैठे ही बैठे उस दुकानदार को एक लाख रुपये का लाभ हो गया । इस पर प्रसन्न वदन उस सेठ ने वसुदेव को अपने घर ले जाकर उन्हें खूब अच्छा भोजन निवास आदि देकर प्रसन्न किया । इसी समय वहां पर उपस्थित सेठ की दास पुत्री दूसरी ओर मुँह कर बोलते देख वसुदेव ने उसे पूछा कि हे सुन्दरी
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