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________________ जैन महाभारत mmmmmmmm थी । इसलिए मुझे कोई चोट न आई, मैंने छुरी से भाथड़ी को चीर डाला, और तैरता तैरता बाहर आ निकला । मैंने देखा कि आकाश में दूसरे पक्षी भाथड़ियों को उड़ाए लिए जा रहे हैं, कुछ ही क्षणों मे पानी पर तैरती हुई मेरी भाथड़ी को भी एक पक्षी झपट कर ले गया। अब म यहाँ अपने साथियो से बिछुड़ कर अकेला रह गया । मुझे चारो ओर निराशा ही निराशा दिखाई दे रही थी क्योकि यहाँ कहीं कोई भी जीवन का चिन्ह लक्षित नहीं होता था, फिर भी आशा का तन्तु न टूटा, मै लक्ष्यहीन सा पर्वत शिखर पर चढ़ने लगा। और सोचने लगा कि शायद इस शिखर के पार कहीं किसी आशा किरण की झलक दिखाई दे जाय । इस प्रकार बन्दरो की तरह उछलता-कूदता हाथ पैर मारता कहीं मैढक की तरह फुदकता और कभी सरीसों की भांति रेगता हुआ अन्त में पर्वत शिखर पर जा ही पहुंचा। पर्वत शिखर पर पहुचते ही मेरे हर्ष और आश्चर्य का ठिकाना न रहा । यहां पर एक मुनिराज तपस्या करते हुए मेरे ऑखों के सामने उपस्थित थे । वे तप में लीन थे और ध्यानस्थ थे, इसलिए मैं उन्हे प्रणाम कर चुपचाप उनके पास बैठ गया। वहां बैठकर मैं सोचने लगा कि यहां आने का सब से बडा यह लाभ हुआ कि मुझे ऐसे दिव्य महात्मा के दशन हो गये । उनकी शान्त मुख मुद्रा को देखते ही सचमुच मेरा सारा श्रम दूर हो गया, और मैं चुपचाप उनका ध्यान समाप्त होने की प्रतीक्षा करने लगा। ध्यान से उठने के पश्चात् उन्होंने मझे भली भॉति पहचान कर पूछा कि 'क्या तुम इभ्यश्रेष्ठी भानुदत्त के चारुदत्त तो नहीं हो । उस पर मैंने कहा हाँ भगवन् मैं चारुदन्त ही हू । तब उन्होंने पूछा । तुम यहाँ कैसे आ पहुचे । क्योंकि यहां पर देवता और विद्याधरों के सिवा अन्य किसी का आना अत्यन्त कठिन है। इस पर मैने गणिकागृह प्रवेश से लेकर वहाँ पहुँचने तक की सारी कथा सक्षेप में कह सुनाई। तब उस तपस्वी ने कहा कि तुमने मुझे पहचाना नहीं, मैं वही विद्याधर अमितगति हू जिसे तुमने बचाया था। तब मैंने बड़ी उत्सुकता से पूछा कि उसके पश्चात् आपने क्या किया । , इस पर उसने इस प्रकार कहना आरम्भ किया
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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