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चारुदत्त की आत्मकथा
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अमितगति का अगला व्रतान्त____ मैंने तुम्हारे पास से उडकर अपनी विद्या का आह्वान किया । उन विद्याओं ने मुझे बताया कि वैताढ्य पर्वत पर तेरी प्रिया इस समय तेरे शत्रु के साथ काचन गुहा मे है । तब मै काचन गुहा में जा पहुँचा, वहां मैंने हाथों में मसली हुई पुष्पमाला के समान शोभा हीन और दुःख समुद्र में डूबी हुई अपनी प्रिया सुकुमारिका को देखा। धूमसिंह वैताल विद्या की सहायता से उसे मेरा मृत शरीर बताकर कह रहा था कि यह तेरे पति अमितगति का शरीर पड़ा है। इसलिये तू या तो मुझे स्वीकार करले या जलती हुई अग्नि में प्रविष्ट होकर सती हो जा । इस पर सुकुमारिका ने उत्तर दिया मैं तो अपने प्राणनाथ का ही अनुसरण करू गी। यह सुनते ही धूमसिंह ने काष्ठ एकत्रित कर एक जाज्वल्यमान चिता तैयार कर दी। वह मेरे शव को आलिंगन कर चिता में कूदना ही चाहती थी कि मैं जा पहुँचा ! मेरी ललकार को सुनते ही वह दुष्ट नौ दो ग्यारह हो गया, मुझे जीवित देख सुकुमारिका बड़ी चकित और हर्षित हुई । इस प्रकार मैं अपनी प्रिया को साथ लेकर अपने माता पिता के पास सकुशल पहुच गया।
मेरे घर पहुंचने के कुछ दिनो पश्चात् विद्याधर राज पुत्री मनोरमा के साथ पिता जी ने मेरा विवाह कर दिया। और मुझे राज्य भार सौप कर हिरण्यकुम्भ व सुवर्णकुम्भ नामक मुनियों से दीक्षा ग्रहण कर ली। उनके दीक्षा लेने के पश्चात् मनोरमा ने सिंहयश और वराहनीव नामक दो पुत्रों को तथा दूसरी पत्नी विजय सेना ने गधर्व सेना नामक पुत्री को जन्म दिया। अपने पिता के निर्वाण प्राप्त कर लेने का समाचार सुनकर मैंने भी अपना राज्य अपने पुत्रों को सौंप दिया और दीक्षा ले ली। तब से मैं यहीं रहकर ज्ञानाभ्यास व तप कर रहा हूँ। इस पर्वत को कर्कोटक पर्वत कहते हैं, और इस द्वीप को १ कण्ठद्वीप कहते हैं।
हे भद्रमुख । यह बहुत अच्छा हुआ तुम यहा आ पहुँचे । अब यहां तुम्हें किसी प्रकार की कोई कमी न रहेगी। मेरे पुत्र प्रतिदिन मुझे बन्दन करने आते हैं। वे तुम्हें अपने साथ नगर में ले जायेगे। वहाँ तुम्हारा स्वागत सत्कार कर विपुल धनमान के साथ तुम्हें चम्पा नगरी मे पहुँचा देगे।
मुनिराज के इस प्रकार कहते ही थोडी देर में विद्याधर राज सिंहयश ओर वराहग्रीव वहाँ आ पहुचे। उन्होंने पिता को वन्दना कर मेरे
१ कम्भकण्टक द्रोप