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चारुदत्त की आत्मकथा
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बकरे को मत मारो। क्योंकि उसने ऐसे सकटपूर्ण मार्गों से सकुशल निकाल कर हमारे प्राण बचाये है, इसलिए इनका तो हमें कृतज्ञ रहना चाहिए ।
तब रुद्रदत्त ने पूछा, तुम अकेले यहाँ क्या करोगे ?
मैंने उत्तर दिया मैं यहीं तप करता हुआ विधि पूर्वक ढेह का त्याग कर दूगा ।
इस पर वे सब लोग मेरे कहने की कुछ भी परवाह न कर अपने अपने बकरों को मारने लगे। मैं अकेला उन लोगों को ऐसा करने से रोक न सका । दूसरे बकरों को एक एक करके मरता देख मेरा बकरा बड़ी दीन और कातर दृष्टि से मेरी ओर निहारने लगा। उसकी ऐसी दयनीय दशा देख मैने कहा
हे बकरे ' मैं तेरी रक्षा करने में असमर्थ हू । पर इतनी बात को . ध्यान में रख कि यदि तुझे मरण वेदना हो • रही है तो उसका कारण रूप तेरे द्वारा भव में किया गया मरण भीरु अन्य प्राणियों का TE ही है। इसलिए तुझे इन वध करने वालों पर भी द्वेष का भाव नहीं रखना चाहिये । और भगवान् अरिहन्त ने अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और अस्तेय इन व्रतों का ससार भ्रमण के नाश के लिए उपदेश दिया है । इसलिए तू सव सावद्य - पाप युक्त व्यापारों का त्याग कर दे | अब इस अन्तिम समय मे अपने हृदय में 'नमो अरिहताण' इस मन्त्र को धारण कर ले। इसी से तेरी सद्गति होगी। क्योकि सकट के समय धर्म ही सब से बड़ा रक्षक है, धर्म ही माता है धर्म ही पिता है और धर्म ही बन्धु है ।
मेरी यह बात सुन उस बकरे ने सिर झुका कर आत्मधर्म स्वीकार कर लिया । तव मैंने उसे 'नमोकार मन्त्र सुनाया । इस प्रकार शान्त और स्थिर चित्त हुए उस बकरे को भी उन लोगों ने मार डाला । हम लोग एक-एक छुरी हाथ में लेकर उनकी खालों में जा छिपे। इसी समय वहाँ भारुण्ड पक्षियों के आने की फरफराहट सुनाई दी, और देखते ही देखते वे लोग हमें आकाश में उड़ा ले गये ।
अभी मैं थोड़ी ही दूर आकाश में पहुचा होऊँगा कि इतने में दूसरे भारण्ड ने उस पर आक्रमण कर दिया । इन दोनों पक्षियों की छीनाझपटी में मैं छिटक कर गिर पडा । दैवयोग से नीचे नदी बह रही
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