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जैन महाभारत तदनुसार में राजपुर जा पहुंचा। इस प्रकार कुछ दिन रुद्रढसके घर सुखपूर्वक बीते।
कुछ दिन वहां रहने के पश्चात् रुद्रदत्त ने मुझे कहा कि यहां से एक व्यापारियो का साथ विदेशो में द्रव्योपार्जन के लिये जा रहा है। इसलिये हम दोनो भी उनके साथ चलेंगे। आशा है इस बार तुम्हारा श्रम अवश्य सार्थक होगा।
तदनुसार हम दोनों साथ में सम्मिलित हो गये, चलता-चलता वह साथै सिन्धुसागर सगम नामक नदी को पार कर ईशान दिशा की
ओर चलने लगा। चलते-चलते हम लोग रवश और चीन देशो मे होते हुए वैताढ्य पर्वत की उपत्यका में स्थित शंकुपथ नामक पर्वत के पास जा पहुंचे। यहां के पडाव मे हमारे मार्गदर्शको ने तुम्बुरु का चूर्ण बनाकर हम लोगो को देते हुए कहा कि इस चूर्ण के थैला को
आप लोग अपने-अपने साथ रख लेवे । अपना सब सामान भी अपनी पीठ पर बांधले । क्योंकि यहा से पहाड़ की सीधी चढ़ाई चढ़नी पडेगी। हाथों से शिलाओं को पकड़-पकड़ कर चढ़ते समय पसीने के कारण हथेलिया शिलाओं पर फिसलने लगेगी। यदि कहीं शिलाओ से हाथ छूट गया तो इस अनन्त गहरे पर्वत के खड्ड मे ऐसे जा गिरेगे कि कहीं हड्डी पसली का भी पता न लगेगा। मार्गदर्शकों के ऐसा समझाने पर हम लोगों ने तुम्बुरु चूर्ण के थैले अपने कन्धों पर लटका लिये। __ अब हम छिन्न टंक (जहां पर निवास के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता) शिखर पर चढ़ने के लिये विजया नामक अगाध नदी के किनारे-किनारे शकुपथ पर्वत पर चढ़ने लगे। शकुपथ पर्वत की चोटी सचमुच शकु यानि कील के समान सीधी और नुकीली थी इस पर चढ़ते समय प्रतिक्षण प्राणों का सशय रहता था। इस पर चढ़ते समय बड़ेबड़े साहसियों के भी छक्के छूट जाते थे। कई हमारे पथप्रदर्शक सहा. यक “भोभिये" हमसे ऊपर चढ़ जाते और रस्सा नीचे डाल देते हम उसी के सहारे ऊपर जा पहुँचते, कहीं दूसरी ही युक्ति से काम लेना पड़ता। इस शकुपथ की चढ़ाई का स्मरण आते ही अब भी शरीर कॉपने लगता है । पर सौभाग्य से हम लोग सकुशल शंकुपथ को पार कर दूसरे जनपद में जा पहुंचे । यहां हमने वैताढ्य पर्वत से निकलने