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चारुदत्त की आत्मकथा
१३१ वाली इषुवेगा नदी के तट पर अपना पडाव डाला। यहा हमें भोभियों ने बताया कि इस नदी का प्रवाह सचमुच इपु अर्थात् वाण के समान तीव्र गति वाला है। इसकी धारा के भयकर वेग के कारण इसे कई भी तैर कर पार नहीं कर सकता। साथ ही इसके जलका प्रवाह भी ना से इतना नीचे है कि पहुँचना भी अत्यन्त कठिन है। इसलिये इन पर्वत से सामने के पर्वत पर पहुचने का यहां एक ही उपाय है। उपाय को सावधान होकर सुनो तथा समझ लो। हम इस नदी के दा तट पर अवस्थित हैं । इस दक्षिण पर्वत श्रेणी से उतरने बने में नदी के दोनों तटों पर उगी हुई ये वेत्र लतायें (न) है। जब हवा उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हैं तो
प
र उत्तर के तट पर उगी हुई बेते दक्षिण किनारक है। ज्यों ही वेत्रलताएँ दक्षिण तट पर हमारे सान्त लेना चाहिए । कुछ देर पश्चात् जब ददिर नई तो वे वेत्र लताए- हमें भी अपने साय किन तदनुसार उन लम्बी-लम्बी बेंतों को
पहनन् को पार कर गये । नदी पार करने का अनुः के- कर इसका कुछ वर्णन नहीं किया जा सकत
नी हो जाती तो तत्काल उस पाताल करना जा गिरते।