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चारुदत्त की आत्मकथा
१२६ नेत्र व विकराल रूप को देख मैंने सोचा कि अब इस भैंसे से बचना कठिन है ज्योंही वह मुझ पर झपटा कि दैवयोग से मुझे एक बहुत ऊची सी शिला दिखाई दे गयी । मैं लपक कर उस पर जा चढा, अब उस भैंसे ने मुझे मार डालने का कोई चारा न देख उस शिला के पास आ बडे जार जोर से टक्कर मारने लगा। किन्तु उसका कुछ असर न हुआ । इस प्रकार शिला पर चढ़ मैं बच तो गया, पर उस भैंसे से बच निकलने का कोई उपाय न था। क्योंकि उसके वहाँ से टल जाने के कोई लक्षण न थे। घटों तक वह मस्त भैसा वहाँ उत्पात मचा कर मुझे भयभीत करता रहा । इधर भूख और प्यास के मार मेरी जान निकली जा रही थी, सोच रहा था कि न जाने कितने दिनों तक अब इस शिला पर मुझे बैठे रहना पड़ेगा। उस अध कूप में से तो बच आया । पर अब इस शिला पर बैठे बैठे ही अन्न-जल के अभाव में प्राण त्याग देने पडेंगे। क्योंकि वह भैंसा तो मेरे प्राण लेने आया था, और अब वहाँ से टस से मस नहीं होना चाहता था।
दैवयोग से इस समय एक बड़ी विचित्र घटना घटी। पास ही के वृक्ष पर से एक भयकर अजगर ने उतर कर भैसे का पीछा करना आरम्भ किया।
अब तो मैंसे का ध्यान मेरी ओर से बट गया और वह अजगर से उलझ गया। अजगर और भैंसे के इस संघर्ष में मुझे अपने प्राण बचाने का अवसर मिल गया। और मै उस शिला से कूद कर वहाँ से निकल भागा । भागते भागते मै उस जगल को पार कर गया । अब मुझे एक पगडडी दिखाई दे गयी, उस पगडडी पर कुछ ही दूर चलने पर मैं एक चौराहे पर जा पहुँचा । अब तो मुझे विश्वास हो गया कि पास में ही कोई न कोई बस्ती अवश्य होगी। इस मार्ग पर थोडी ही दूर बढा था कि मुझे कोई व्यक्ति आता हुआ दिखायी दिया। मेरे पास में पहुचते ही उसने मुझे देखते ही कहा कि अरे । चारूदत्त तुम यहां किधर से आ निकले । यह और कोई नहीं, मेरा पुराना सेवक रुद्रदत्त था। मैने उसे सक्षेप में अपनी सारी कथा कह सुनाई । इसी समय उसने अपने थैले में से निकालकर कुछ खाने-पीने को दिया । और कहा कि यहा से थोडी दूर ही १राजपुर नामक मेरा ग्राम है। इसलिए आप मेरे घर चल ।
१. प्रत्यत ग्राम। पठान्तरे ।