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चारुदत्त की आत्मकथा को शत्रु के फंदे में से छुडा लाऊ, कहींऐसा नि हो क मुझे मरा हुआ जानकर वह भी प्राण छोड बैठे।
किन्तु जाने से पहले मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे अवश्य कोई मेरे योग्य सेवा बतायें, क्योंकि जब तक मैं इस उपकार का बदला न चुका दूगा तब तक मेरे हृदय को शान्ति न मिलेगी। विद्याधर के ऐसे प्रेम पूर्ण वचन सुनकर मैंने कहा आप जो मेरे प्रति इतना प्रेम दर्शा रहे हैं वही क्या कम है। शेष रहा उपकार का प्रश्न सो तो
मैंने अपने कर्तव्य का ही पालन किया है । दूसरे के दुःख को दूर - करना प्रत्येक प्राणी का प्रथम कर्तव्य है। और मनुष्य को तो विशेष
रूप से अपने इस कर्तव्य के प्रति सतत जागरूक रहना चाहिये । अतः मुझे अन्य किसी वस्तु की कोई आवश्यकता नहीं। इस ससार में सज्जनों का समागम ही सबसे दुर्लभ है इसलिये आपके दर्शन कर मुझे हार्दिक प्रसन्नता प्राप्त हुई । इस पर उस विद्याधर के नेत्र स्नेहाथ से पूर्ण हो गये वाणी गद्गद् हो आई वह रूधे हुए कठ से हमारा शत् शत् धन्यवाद कर वहा से विदा हो गया।
: मेरा पतन :विद्याधर के चले जाने के पश्चात् इधर हम लोग भी उसकी चर्चा करते हसते खेलते कूदते अपने अपने घरों को वापिस आ पहुँचे। यह उस समय की घटना है, जब मैं किशोरावस्था को पारकर नवयौवन की कान्ति से जगमगाने लगा था। इन्हीं दिनों मेरी माता अपने भाई सर्वार्थ के घर गई उनके मित्रवती नामक एक सुन्दर पुत्री थी। मामा ने उन्हें कहा कि 'मैं अपनी पुत्री का सम्बन्ध चारुदत्त से करना चाहता हूँ। मेरी माता ने इसके लिये सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दी । तदनुसार मित्रवती का मेरे साथ बड़े समारोह पूर्वक विवाह सम्पन्न हो गया। किन्तु उस समय मैं सगीत कला की साधना में लगा हुआ था । विद्याभ्यास में सतत निरत रहने के कारण यौवन के विकारों से सर्वथा अनभिज्ञ और अल्हड़ था । रात-रात भर अपने एकान्त कमरे में अकेला वैठा गाता बजाता हुआ स्वर साधना किया करता । मैं विवाहित हूँ मेरी पत्नी भी है और उसके प्रति भी मेरा कुछ कर्तव्य है इसका तो मुझे तब तक भान ही न हुआ था। मेरी ऐसी दशा देख मेरी पत्नी अत्यन्त दुःखित रहने लगी। एक दिन प्रातःकाल ही मित्रावती की माता