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________________ ११६ जैन महाभारत mmmmmmmmmmmmmmmmm साथ विहार करता हुआ# वैतादय की उपत्यका में अवस्थित सुमुख. नामक आश्रम पद मे जा पहुंचा। वहाँ पर हिरण्यलोम नामक तपस्वी रहते थे। वे मेरी माता के बड़े भाई थे। उन्हाने मेरा बड़ा स्वागत सत्कार किया। उनके पूर्ण यौवन श्री से सुशोभित शिरीष पुष्प के समान सुकोमलांगी सुकुमारिका१ नामक पुत्री थी। उसने देखते ही देखते मेरे हृदय को हर लिया । उस समय तो मै चुपचाप अपने घर लौट आया किन्तु प्रतिक्षण उस सुन्दरी के ध्यान मे मग्न रहने के कारण मेरा खाना, पीना, पहिनना आदि सब कुछ छूट गया। मेरी यह दशा देख पिता जी ने मेरे मित्र के द्वारा वास्तविक कारण का पता लगा शीघ्र ही सुकुमारिका से मेरे विवाह की व्यवस्था कर दी । इधर मेरा मित्र धूमसिंह भी सुकुमारिका पर आसक्त था। वह जब भी मेरे घर आता उसके आकार प्रकार और विकारों को देखकर मेरी पत्नी जलभुन जाती और स्पष्ट रूप से उसकी शिकायत भी कर दिया करती। किन्तु मै उसे समझा दिया करता कि यह तेरा भ्रमजाल है। मेरे मित्र का मन कदापि विकृत नहीं हो सकता किन्तु एक दिन मैंने उसकी विकार युक्त चेष्टाओं को प्रत्यक्ष देख लिया । फिर क्या था । मेरे क्रोध का ठिकाना न रहा । मैने गरजते हुये कहा कि अरे मित्रद्रोही धूमसिंह जा यहाँ से निकल जा । अन्यथा मैं तेरे प्राण ले लूगा । यह सुनते ही वह क्रोध पूर्ण दृष्टि से हमारी ओर देखता हुआ वहां से निकल गया। और फिर कभी उसने अपना काला मुह नहीं दिखाया । मैं भी अपनी प्रिया के साथ स्वेच्छा पूर्वक आनन्दोपभोग करता हुआ सुख से रहने लगा। आज मैं अपनी प्रिया के साथ इस नदी तट पर आया हुआ था। किन्तु इस स्थान को रति-क्रीड़ा के लिए अनुचित जान हम उस लता मंडप मे चले गए। थोड़ी देर पश्चात् विद्या से रहित स्थिति मे मेरे शत्रु ने मुझे आ घेरा और पकड़ कर बाध लिया। वह विलाप करती हुई मेरी पत्नी को हर ले गया है । आपने अपने बुद्धिबल से मुझे जीवन दान देकर उपकृत किया । इसलिये हे चारुदत्त ! आप मेरे परम हितैषी हैं । अब मुझे विदा दीजिये ताकि मैं अपनी प्राणप्रिया सुकुमारी हिमवान् पर्वत पर गये-ऐसा अन्य ग्रन्थो में मिलता है। १सुकूमालिका
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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