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जैन महाभारत
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हमारे घर आ पहुँची, उस समय मित्रावती को अलंकार और प्रसाधन से हीन देखकर, उसने पूछा
बेटी क्या बात है | आज तुम्हारे पति कहीं बाहर हुए गये हैं या आपस मे कुछ मन-मुटाव हो गया है । जो इस प्रकार उदास सी दिखाई देती है।' इस पर मित्रवती ने उत्तर दिया कि मुझे पिशाच के हाथ में सौपकर अब मेरी उदासी का कारण पूछ रही हो । इस पर उसकी माता ने डाटा कि चारुदत्त जैसे सुशील सुशिक्षित सुन्दर पति को पिशाच कहते हुए तुझे शर्म नहीं आती । अरे । ऐसा देवता पति तुझे और कहां मिल सकता था ।
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इस पर मित्रावती ने उत्तर दिया मां मैं जो कुछ कह रही हूं वह सर्वथा सत्य है । आप बुरा न मानिये वे रात-रात भर अकेले कमरे में बैठे गाते, बजाते, इसते, खेलते, कूदते रहते है । उन्होंने आज तक कभी बात ही नहीं पूछी, कि मै कहॉ जीती हूं और कहा मरती हूँ । ऐसे विवाह से तो मै कुंवारी ही रह जाती तो भला था । यह सुन उसकी मां मारे क्रोध के आग बबूला हो उठी और उसने मेरी माता को कई कठोर वचन कहने शुरु कर दिये, मेरी माताजी ने पहले उसे शान्ति पूर्वक समझाने का प्रयत्न किया पर बात तो बढ़ती गई, और अन्त में क्रध हो उन्होंने मित्रावती को उसकी मा के साथ मायके भेज दिया ।
मित्रावती के मायके चले जाने पर मै पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हो गया, और रात दिन संगीत साधना मे ही मस्त रहने लगा । इसी बीच मेरे पिता जी ने मेरे लिए एक ललित गोष्ठी भी करवाई जिससे कि मैं काम वासनाओं मै प्रवृत हो जाऊं किन्तु उनका यह प्रयास भी सफल न हो सका और मै पहले की तरह ही अपने कार्य में व्यस्त रहा । पश्चात् एक दिन मेरे चाचा रूद्रदत्त को जो सातो कुव्यसनों में निपुण था बुलाकर मेरी माता ने मुझे उसको सौप दिया और कहा कि ऐसा उपाय करो जिससे कि यह अपनी पत्नी से प्रेम करने लगे । माता के इस प्रकार कहने पर रूद्रदत्त बोला कि 'यह तो मेरे बॉये हाथ का खेल है ।' तदनुसार वह नित्य प्रति मेरे पास आने लगा और मुझे काम
वासना सम्बन्धी कथाए सुनाने लगा । इन कथाओं से मेरे जीवन में एक नया परिवर्तन आ गया और तब से मैं विषयों के प्रति उत्सुक
रहने लगा । इसी चम्पानगरी मे उस समय कलिंग सेना नामक एक