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है । यही इसकी उपादेयता है । ग्रन्थ का निर्मारण श्रीर उसकी शैली, भाव और भाषा का अभिव्यजन, कथावस्तु और पात्रो का चरित्रचित्रण, जैनजोवन की विशेषताए और सिद्धान्त प्रतिपादन की प्राजलताए तो ग्रन्थ के स्वाध्याय से भी साक्षात्कृत की जा सकती है, किन्तु ग्रन्थकार अथवा ग्रन्थ सम्पादक को जीवनो तो गर्भगर्त मे ही तिरोहित रह जाती है, प्रत. प्रस्तावक का श्रावश्यक कर्तव्य यह भी रह जाता है कि वह ग्रन्थकार के विषय मे कुछ कहे | ग्रन्थकार प० श्री शुक्लचन्द्रजी म० के विषय में :
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वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के पंजाब प्रान्त के आप मत्री हैं, शान्त और निर्भीक जीवन मे प्रेम और सामज्यस का जो विलक्षण समन्वय हुआ है उसी के नाते ग्राप ग्राज तक जैन समाज के लोकप्रिय, लोकपूज्य, और लोकवद्य बने रहे है । अभी २ दिल्ली मे विश्व धर्म सम्मेलन के अवसर पर जैन साधुओ की ओर से आप प्रतिनिधित्व कर रहे थे । सम्मेलन के २६५ प्रतिनिधियो मे आप के चेहरे पर जो शान्ति चमक रही थी वह अन्तर्राष्ट्रीय जगतके धार्मिक प्रतिनिधियो को जैन धर्म की त्यागमधी साधना और आत्मतेजस्विता के प्रति वरवश आकृष्ट कर रही थी ।
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आपने ही जनता के हृदय की भावना को सम्मान देते हुए श्री शुक्ल जैन रामायण का काव्यात्मक भाषा मे निर्माण किया है, अभी जैन महाभारत निर्माण करने के पीछे भी ग्रापका उद्देश्य जनकल्याण ही रहा है । जैन महाभारत पाठको को जहाँ वसुदेव, पाडव, कौरव, श्राचार्यगण, तथा युद्ध का एक नया चित्र प्रदान करेगा वहाँ यह महाभारत जैनप्राचार, जैनइतिहास, और जैन दृष्टिकोण के विषय मे भी नया प्रकाश दिखायेगा । ऐसा पूर्ण विश्वास है ।
मुनि सुशील कुमार भास्कर नई दिल्ली ।