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* छठा परिच्छद*
चारुदत्त की आत्मकथा धाक दिन बैठे बैठे वमुदेव ने चारुदत्त से कहा कि प्रारने विवाह
के समय गवर्व सेना की उत्पत्ति का रोचक वृतान्त बताने के लिये कहा था। साथ ही आपने यह भी कहा था कि यात्म कथा भो सुनाऊगा। अतः यदि उचित समझे तो वह कथा सुनाकर मेरी जिनासा को शात कीजिये । यह सुन चारुदत्त ने कहा कि मेरी और गधर्व सेना की कथा वस्तुतः बड़ी ही रोचक और लम्बी है । उसे मैं तुम्हे अत्यन्त सक्षेप मे सुनाता हू। ध्यानपूर्वक सुनो
इस चम्पा नगरी मे भानुदत्त नामक एक अत्यन्त समृद्ध सेठ रहता था। उसकी स्त्री का नाम सुभद्रा था। वे दोनो दम्पति मुनिराजों की सेवा मे परायण रहने वाले तथा सम्यग्दृष्टि से युक्त व अणु व्रतों के पालक थे। सब प्रकार के धनधान्यादिक सुखावयवा से पूर्ण होने पर भी उनके घर मे कोई सतान नहीं थी। सतानाभाव के दुख से दोनों पति पत्नी प्रायः दुखित रहा करते थे। इस प्रकार चिंता और उदासी से उनका समय कट रहा था कि चारु नामक एक चारण ऋधि के धारक मुनिराज ने चम्पा नगरी में अपना चतुमास किया । उस चर्तुमास मे भानुदत्त सेठ और सेठानी ने मुनिराज की बडी सेवा की। एक बार पोषध व्रत के पारण के पश्चात् सेठ और सेठानी ने बडी श्रद्धा
गन्धर्व सेना के विवाह से पूर्व चारुदत्त ने वसुदेव से पूछा कि हे कुमार श्रापका गोत्र क्या है ? इस पर वसुदेव ने मुस्करा कर उपहास रूप मे उत्तर " दिया कि 'जो आप समझ ले' वणिक कन्या पर तो सब का अधिकार होता है । तब चारूदत्त ने कहा कि आप इसकी अवज्ञा तथा उपहास न करें, समय पर मैं आपको गन्धर्व सेना की तथा अपनी कथा सुनाऊंगा ।