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जैन महाभारत
उवसम साहु परिहया न हु को वो वरिणश्रो जिणिदेहि । हुंति हुँ कोवणसीलया पावंति बहूणि जाइय व्वाई ॥ (उपशम साधु वरिष्ठा नहि कोपो वर्णितो जिनेन्द्रग)।
भवन्ति हि कोपशीला ये प्राप्नुवन्ति बहूनि जन्मानि ॥ अर्थात हे साधुओ मे श्रेष्ठ शान्त हो जाइये । क्योंकि जिनेश्वरी ने क्रोध को अच्छा नहीं कहा है, जो कोप शील होते है उन्हे अनेक जन्म जमान्तरो तक ससार में भ्रमण करना पड़ता है । हम पर आपकी बडी कृपा है इस प्रकार कह कर तथा प्रणाम कर विद्याधरी ने इस गोतिका को ग्रहण कर लिया।
इवर विष्णु की इस प्रकार की अपूर्व लीला तथा उसके कारणभूत अपने दुष्ट मन्त्री नमुचि के दुवृत को समझकर महाराज महापद्म पौर जनपदों के साथ सघ स्थविर की शरण मे जा पहुचे । वे साधुओं के समक्ष हाथ जोड़कर गद् गद् वाणी से प्रार्थना करने लगे कि आप ही मेरे लिए शरण है । मैं जिनेश्वर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त पर अटल विश्वास करने वाला हू और सुव्रत अरणगार का शिष्य हूँ। अतः मेरी तथा इन नागरिको की रक्षा कीजिए। मैंने कुपात्र के हाथों मे राज्य सौप दिया, और उसके दुवृत का मुझे कुछ पता न लगा इसी कारण यह बडा भारी अपराध हो गया है । राजा की इस प्रकार की विनय भावना से प्रसन्न हो उदारचेता श्रमण सघ के स्थविर ने कहा कि राजन् । हमने तो आपको क्षमा कर दिया है किन्तु उस विपय प्रमत्त नमु चि के कारण ऐसी भयकर परिस्थिति उत्पन्न हो गई कि सारे ससार के अस्तित्व मे ही सन्देह उत्पन्न हो गया । इसलिए आप विष्णु कुमार __न्ति कीजिए। इस पर सारा सघ हाथ जोड़कर विष्णुकुमार के * खडे हो विनती करने लगा कि हे विष्णुकुमार श्रमण शान्त
आइये । सघ स्थविर ने महापद्म राजा को क्षमा कर दिया है अब आप अपने इस विराट स्वरूप को समेट लीजिए । आप अपने चरण