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वमुदेव का गृहत्याग
७६ कर लिया। और उसके मस्तक के ऊपर जा बैठे अब तो वह उनके ऐमा वशवर्ती हो वैठा कि मानो उनका पढाया हुआ शिष्य हो। अव चद उन्हें बडी मस्त चाल से आगे ले चला । इतने में आकाश मार्ग से पाये हुए अचिमाली और पवनजय नामक दो विद्याधरी ने आकर उनका हाथ पकड लिया और वे उन्हें गजराज से उठाकर एक पर्वत पर ले गये । श्रोर वहां पर उन्हे एक सुन्दर स्थान पर बैठाकर प्रणाम वे दानी विद्याधर इस प्रकार निवेदन करने लगे । हे देव । इस कु जरावर्त नामक नगर के स्वामी विद्याधरो के अधिपति महाराज अशनीवेग१ हैं। उन्हीं की आज्ञा से हम आपको यहां ले आये हैं।
आप यह निश्चित जानिये कि आज से वे आपके श्वसुर हैं और हम दोनों आपके सेवक । हमारा नाम अचिमाली और पवनवेग है । कुमार को इस प्रकार वास्तविक वृतान्त बता तथा उनकी उत्सुकता को शांत कर उनमें से एक तो महाराज को समाचार देने नगर की ओर चला गया तथा दूसरा उनकी सेवा में वहीं रह गया। राजसभा में प्रवेश करते ही अर्चिमाली ने विद्याधर महाराज अशनीवेग को सादर प्रणाम कर निवेदन किया कि महाराज आप बडे भाग्यशाली हैं। उस गज को पराजित करने वाले महापुरुष को हम अपने साथ ले आये है । वह कोई साधारण पुरुष नहीं है, बड़ा धीर वीर परम सुन्दर और अत्यन्त विनीत है । नव यौवन की आभा से उसका शरीर इतना देदिप्यमान है कि साधारण व्यक्ति की तो सहसा उन पर दृष्टि ही नहीं टिकती । अर्चिमाली के मुख से अपने भावी जामाता के रूप गुण की ऐमी प्रशसा सुनकर महाराज अशनिवेग परम आनन्दित हुए और उन्होंने यह शुभ सदेश सुनाने के उपलक्ष्य में उस विद्याधर को अत्यन्त यामूल्य वस्त्राभूषण प्रदान कर प्रसन्न किया।
नर महाराज प्रशनिवेग बडे ठाठ-बाट के साथ सपरिवार वहा श्रा पहुंचे जहा यसुदेव कुमार बैठे थे। उन्हें नाना प्रकार के दिव्य वस्त्रालकारों से विभूषित कर बडे सम्मान के साथ नगर मे ले आये। उनके रूप गुण को देखकर नगर के नरनारी उनकी शत् शत मुख से प्रशसा करने लगे। वसुदेव कुमार को प्रत्यन्त सुसज्जित मनोहर भवन में ठहराया गया। कुछ दिन पश्चात् शुभ नक्षत्र और शुभ मुहूर्त में महाराज
१ पश्यनिया।