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जैन महाभारत
अशनिवेग ने अपनी पुत्री श्यामा के साथ उनका विवाह कर दिया। विवाह के पश्चात् वसुदेव और श्यामा दोनो बड़े आनन्द के साथ कुछ समय बिताते रहे। वे रात दिन अपनी प्रिया के रूप पर वैसे ही अनुरक्त रहने लगे। ___जैसे भ्रमर अहर्निश कमल के रूप सौरभ पर मडराया करता है। श्यामा वीणा वादन मे अत्यन्त निपुण थी। वह वीणा वजा २ कर सदा उनका मन प्रसन्न करती रहती । उसकी इस वीणावादन कुशलता पर मुग्ध हो एक दिन वसुदेव ने कहा कि ? प्रिये ! हम तुम से बहुत प्रसन्न है इस लिये जो भी चाहो अपना मन वांछित वर मांगो। तुम जो भी मांगोगी वहीं देने को सहर्ष प्रस्तुत है।
श्यामा ने हाथ जोड़ बड़ी नम्रता के साथ प्यार भरे शब्दों में कहा । कि हे ! प्राणनाथ, यदि आप मुझे सचमुच कोई वर देना ही चाहते हैं तो
यही दीजिये कि चाहे दिन हो या रात आप मुझसे कभी एक क्षण के लिये भी विलग न हों, आपका और मेरा कभी वियोग न हो।
यह सुन वसुदेव ने कहा कि प्राणप्रिये । यह कोन सी बड़ी बात है। तुम जानती हो कि मैं स्वय ही तुम से एक क्षण के लिये भी पृथक नहीं रह सकता फिर तुमने यह कौन सा बड़ा वर मागा है । यह साधारण सी बात वर रूप में क्यों चाही, क्योंकि इससे बहुत अच्छे २ पदार्थ भी मांग सकती थी। आखिर इसमे कुछ रहस्य अवश्य होगा जो तुमने मुझ से वर मांगा है । सच बताओ ऐसा वर मांगने का क्या कारण है।
तब श्यामा बड़े प्यार भरे शब्दो में इस प्रकार कहने लगी कि हे । नाथ मेरे इस वर मांगने का अवश्य एक विशेष कारण है । इस वैताट्य पर्वत के दक्षिण की ओर अनेक गुणो का भडार किन्नरों से सुसेवित किन्नरोद्गीतपुर नाम का एक नगर है । इस नगर के हरिपति अर्चिमाली नामक एक गधर्व थे । उनके ज्वलनवेग और अशनिवेग नामक दो पुत्र हैं । महाराज अर्चिमाली ने संसार से उदासीन हो अपने पुत्र ज्वलनवेग को राज्य भार सौप तथा छोटे पुत्र अशनिवेग को युवराज
बना स्वय दीक्षा ले ली। समयोपरान्त राजा ज्वलनवेग को भी ससार 3 से वैराग्य हो गया और उन्होंने अपने छोटे भाई अशनिवेग को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली । ज्वलनवेग के अगारक नामक एक पुत्र था उसे उन्होंने युवराज पद दे दिया । मैं अशनिवेग की पुत्री हूँ। मेरी