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प्रकर्ष मे विश्वास केन्द्रित हो जाता है और मन की तरलता सघनता मे बदल जाती है। ___ज्ञान और वैराग्य चैतन्य की स्वाभाविक क्रियाए है। श्रद्धा का प्रकर्ष प्ररेणा से प्राप्त क्रिया है। मन की एकाग्रता केवल इन्ही से नहीं होती है। वह शरीरसंयम से भी हो सकती है। शरीर की चचलता अर्थात् मन की चचलता। शरीर की स्थिरता अर्थात् मन की स्थिरता। शरीर की स्थिरता शिथिलीकरण के द्वारा प्राप्त होती है। शिथिलीकरण की पूरी प्रक्रिया कायोत्सर्ग के प्रकरण मे दी जाएगी। __ शरीर की शिथिलता संकल्प और श्वास-सयम पर निर्भर है। आप पद्मासन या सुखासन मे बैठकर शरीर को ढीला छोड दीजिए और शरीर की शिथिलता का सकल्प कीजिए। शरीर शिथिल हो रहा है, ऐसा अनुभव कीजिए। अनुभव जितना तीव्र होगा, उतनी ही अधिक सफलता प्राप्त होगी।
सकल्प की साधना के पश्चात् श्वास-संयम का अभ्यास कीजिए। यहा श्वास-सयम से मेरा अभिप्राय प्राण को सूक्ष्म करने से है। हम जो श्वास लेते है, वह स्थूल प्राण है। श्वास लेने की जो शक्ति (श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति) है, वह सूक्ष्म प्राण है। नाभि और नासाग्र पर दो-चार क्षण के लिए मन को एकाग्र कीजिए। सहज ही श्वास-सयम हो जाएगा। श्वास की मन्दता या सूक्ष्मता से शरीर की क्रियाए सूक्ष्म हो जाती है और शिथिलीकरण सध जाता है। शरीर की स्थिरता और श्वास की स्थिरता होने पर मन का निरोध सहज सरल हो जाता है।
मन की प्रवृत्ति सकल्प और विकल्प के द्वारा बढती है। उसका निरोध होने पर मन का निरोध अपने आप हो जाता है। सकल्प-निरोध और ध्यान में भिन्नता नही है। सकल्प का निरोध किए बिना ध्यान नही होता
और जब ध्यान होता है, तब सकल्प का निरोध होता ही है। फिर भी यहां संकल्प-निरोध को मानसिक स्थिरता का ध्यान से भिन्न साधन माना है। उसका एक विशेष हेतु है। उसके द्वारा एक विशेष प्रक्रिया का सूचन किया गया है। सकल्प का प्रवाह निरन्तर चलता रहता है। लम्बे समय तक उसे रोकने में कठिनाई होती है। इसलिए प्रारम्भ मे उस प्रवाह की निरन्तरता में विच्छेद डालने का अभ्यास करना चाहिए। इस प्रक्रिया को
मनोनुशासनम् । ३७