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इस सवाद मे मन को स्थिर करने का जो उपाय बताया गया है, वह ज्ञानयोग है। यह मन के अनुशासन का प्रथम हेतु है। यह हर मनुष्य के लिए कठिन है। दूसरी बात यह है कि सबकी रुचि भी समान नहीं है। कोई आदमी ज्ञान-प्रधान होता है तो कोई श्रद्धा-प्रधान होता है और कोई क्रिया-प्रधान होता है। ___यहा ज्ञान का अर्थ सब कुछ जानना नहीं है। किन्तु अपने अस्तित्व की तीव्र अनुभूति है। वैराग्य उसका परिणाम है। अपने अस्तित्व के प्रति अनुराग होने का नाम ही विराग है। जब तक अपने अस्तित्व का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता, तव तक वाह्य वस्तुओ के प्रति मन में तृष्णा रहती है। उसके द्वारा उनके प्रति अनुराग उत्पन्न होता है। आत्मानुभूति होने पर यह स्थिति उलट जाती है। अनुराग वस्तुओं से हटकर अपने प्रति हो जाता है। इसका अर्थ है कि उनके प्रति विराग हो जाता है।
सकल्प, विकल्प और इच्छा-ये सव मन के कार्य हैं। वाद्य वस्तुओ के प्रति जितनी कल्पना और इच्छा होती है, मन उतना ही चचल रहता है। मन की गति को आत्मा की ओर मोड देने पर उसकी कल्पना और इच्छा-शक्ति क्षीण हो जाती है। इसी को हम कहते है वैराग्य के द्वारा मन का निरोध।
वैराग्य ज्ञानयोग का ही प्रकार है। आत्मज्ञान की निर्मलता वैराग्य का रूप ले लेती है। कोई भी आदमी ऐसा नहीं हो सकता जो आत्मज्ञानी नही है और विरक्त है। ऐसा भी कोई आदमी नहीं हो सकता जो विरक्त नही है और आत्मज्ञानी है। जो आत्मज्ञानी होगा वह विरक्त होगा और जो विरक्त होगा वह आत्मज्ञानी होगा, यह निश्चित व्याप्ति है।
__ आत्मज्ञान के दो हेतु है-निसर्ग और अधिगम। कुछ लोग निसर्ग से ही आत्मज्ञानी होते है। अधिगम का अर्थ है गुरु का उपदेश। गुरु के उपदेश से आत्मज्ञान प्राप्त करने वाले नैसर्गिक आत्मज्ञानी की अपेक्षा अधिक होते है। नैसर्गिक आत्मज्ञानी ज्ञान के द्वारा मानसिक एकाग्रता प्राप्त करते है किन्तु गुरु के उपदेश से आत्मज्ञान की दिशा मे चलने वाले श्रद्धा के प्रकर्ष से मानसिक एकाग्रता साध लेते है। श्रद्धा के
३६ / मनोनुशासनम्