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पहला प्रकरण
१. अय मनोनुशासनम् ॥
9. इस ग्रंथ में मन को अनुशासित करने की पद्धति वतलाई गई है अत इसका नाम मनोनुशासनम् है ।
ध्येयनिष्ठा
जीवन का सर्वोच्च ध्येय है - मुक्ति । बन्धन किसी भी व्यक्ति को प्रिय नही है। जिसमें चेतना का किंचित भी विकास है, उसमे मुमुक्षा है
और वह इतनी अपरिहार्य है कि उसे मिटाया नही जा सकता । इसीलिए यह कहना सर्वथा सगत है कि मुक्ति जीवन का सर्वोच्च ध्येय है। जिसके ध्येय और प्रवृत्ति में विसंगति होती है, वह ध्येय के निकट नहीं पहुच पाता। जैसे-जैसे ध्येय और प्रवृत्ति की विसंगति मिटती जाती है, वैसे-वैसे ध्येय सधता जाता है ।
एक व्यक्ति का ध्येय है मुक्ति और वह खाता है शरीर की पुष्टि के लिए, सुनता है कान की तृप्ति के लिए और देखता है आख की तृप्ति के लिए। यह ध्येय की विसंगति है । जव हमारा ध्येय अनेक रूपो मेवंट जाता है, तब हम मूल को नही सीच पाते । शाखाओ, पत्तो और फूलों को सीचने का अर्थ होता है उनका सूख जाना । मूल सीचा जाता है तो शाखाएं, पत्र और पुष्प अपने आप अभिषिक्त हो जाते है । यह ध्येय की संगति है। मूल को छोडकर शेप अवयवो को सीचना ध्येय की विसंगति है । खाना शरीर - निर्वाह के लिए आवश्यक है। सुनना और देखना इन्द्रियो की अनिवार्यता है। कान के पर्दे और आख के गोलक को फोड़ा नही जा सकता । कोई भी आदमी निरन्तर कान मे रूई और आख पर पट्टी वाधकर बैठ नही सकता । जिसे आख प्राप्त है, मनोनुशासनम् / १