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एकाग्रता के साथ केन्द्रित करो। निश्चय की भापा मे उसे बोलकर दोहराओ, फिर उच्चारण को मट करते हुए उसे मानसिक स्तर पर ले आओ। उसके वाद ज्ञान-ततुओ और कर्मशील ज्ञान-तन्तुओ को कार्य करने का निर्देश टो। फिर ध्यानस्थ और तन्मय हो जाओ। इस प्रक्रिया के द्वारा हम शक्ति के उस स्रोत को उद्घाटित करने में सफल हो जाते है, जहा सहने की क्षमता स्वाभाविक होती है।
७-८. अनुप्रेक्षा और भावना
ध्यान का अर्थ हे प्रेक्षा-टेखना। उसकी समाप्ति होने के पश्चात् मन की मूर्छा को तोड़ने वाले विषयो का अनुचिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। जिस विषय का अनुचिन्तन वार-वार किया जाता है या जिस प्रवृत्ति का वार-वार अभ्यास किया जाता है, उससे मन प्रभावित हो जाता है, इसलिए उस चिन्तन या अभ्यास को भावना कहा जाता है।'
जिस व्यक्ति को भावना का अभ्यास हो जाता है उसमें ध्यान की योग्यता आ जाती है। ध्यान की योग्यता के लिए चार भावनाओ का अभ्यास आवश्यक है१. ज्ञान भावना-राग-द्वेप और मोह से शून्य होकर तटस्थ भाव
से जानने का अभ्यास। २ दर्शन भावना-राग-द्वेप और मोह से शून्य होकर तटस्थ भाव
से देखने का अभ्यास। ३. चारित्र भावना-राग-द्वेप और मोह से शून्य समत्वपूर्ण आचरण
का अभ्यास। ४ वैराग्य भावना-अनासक्ति, अनाकाक्षा और अभय का अभ्यास।
मनुप्य जिसके लिए भावना करता है, जिस अभ्यास को दोहराता है। उसी रूप मे उसका सस्कार निर्मित हो जाता है। यह आत्म-सम्मोहन की प्रक्रिया है। इसे 'जप' भी कहा जा सकता है। आत्मा की भावना करने वाला आत्मा
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१ पासनाहचरिअ, पृ. ४६० .
भाविज्जड वासिज्जड, जीए जीवो विसुद्धचेट्ठाए। सा भावण त्ति वुच्चड, नाणाडगोयरा वहुहा।।
मनोनुशासनम् / १८७