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और अप्रियता के मनोभाव से। यदि हम जानने-देखने की शक्ति का विकास चाहते है तो हमे सबसे पहले प्रियता और अप्रियता के मनोभावो को छोड़ना होगा। उन्हे छोड़ने का जानने और देखने के सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं है। हमारे भीतर जानने और देखने की जो शक्ति बची हुई है, हमारा चैतन्य जितना अनावृत है उसका हम उपयोग करे। केवल जानने और देखने का जितना अभ्यास कर सके, करे। इससे प्रियता और अप्रियता के मनोभाव पर चोट होगी। उससे राग-द्वेप का चक्रव्यूह टूटेगा। उससे मोह की पकड़ कम होगी। फलस्वरूप ज्ञान और दर्शन का आवरण क्षीण होने लगेगा। इसलिए वीतराग-साधना का आधार जानना और देखना ही हो सकता है। इसीलिए इस सूत्र की रचना हुई है कि समूचे ज्ञान का सार सामायिक है- समता है। ६. संयम-संकल्प-शक्ति का विकास
हमारे भीतर शक्ति का अनन्त कोप है। उस शक्ति का वहुत वडा भाग ढका हुआ है, प्रतिहत है। कुछ भाग सत्ता मे है और कुछ भाग उपयोग मे
आ रहा है। हम अपनी शक्ति के प्रति यदि जागरूक हो तो सत्ता मे रही हुई शक्ति और प्रतिहत शक्ति को उपयोग की भूमिका तक ला सकते है।
शक्ति का जागरण सयम के द्वारा किया जा सकता है। हमारे मन की अनेक मांगे होती है। हम उन मांगो को पूरा करते चले जाते है। फलतः हमारी शक्ति स्खलित होती जाती है। उसके जागरण का सूत्र है-मन की माग का अस्वीकार। मन की माग के अस्वीकार का अर्थ है-सकल्प-शक्ति का विकास। यही सयम है। जिसका निश्चय (संकल्प या संयम) दृढ होता है, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नही होता। १. उत्तरज्झयणाणि ३२/१०६-१०८
विरज्जमाणस्स य इदियत्या, सद्दाइया तावइयप्पगारा। न तस्स सव्वे वि मणुन्नय वा, निव्वत्तयन्ती अमणुन्नय वा।। एव ससंकप्पविकप्पणासु, सजायई समयमुवट्ठियस्स। अत्ये य सकप्पयओ तओ से, पहीयए कामगुणेसु तण्हा॥ स वीयरागो कयसव्वकिच्चो, खवेई नाणावरण खणेण। तहेव ज दसणमावरेइ, ज चऽन्तराय पकरेई कम्म। नायाधम्मकहाओ, १/११३ निच्छियववसियस्स एत्य कि दुक्कर करणयाए।
मनोनुशासनम् / १८५