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________________ ३. शरीर-प्रेक्षा साधना की दृष्टि से शरीर का वहुत महत्त्व है। यह आत्मा का केन्द्र है। इसी के माध्यम से चैतन्य अभिव्यक्त होता है। चैतन्य पर आए हुए आवरण को दूर करने के लिए इसे सशक्त माध्यम बनाया जा सकता है। इसीलिए गौतम ने केशी से कहा था-यह शरीर नौका है। जीव नाविक है और ससार समुद्र है।' इस नौका के द्वारा संसार का पार पाया जा सकता है। शरीर को समग्रदृष्टि से देखने की साधना-पद्धति बहुत महत्त्वपूर्ण है। शरीर के तीन भाग है : १. अधोभाग-आंख का गढा, गले का गढा, मुख के वीच के भाग। २ ऊर्ध्वभाग-घुटना, छाती, ललाट, उभरे हुए भाग। ३ तिर्यग् भाग-समतल भाग। शरीर के अधोभाग मे स्रोत है, ऊर्श्वभाग मे स्रोत है और मध्य भाग मे स्रोत-नाभि है। साधक चक्षु को सयत कर शरीर की विपश्यना करे। उसकी विपश्यना करने वाला उसके अधोभाग को जान लेता है, उसके ऊर्ध्व भाग को जान लेता है और उसके मध्य भाग को जान लेता है। जो साधक वर्तमान क्षण मे शरीर मे घटित होने वाली सुखः-दुख की वेदना को देखता है, वर्तमान क्षण का अन्वेपण करता है, वह अप्रमत्त हो जाता है। शरीर-दर्शन की यह प्रक्रिया अन्तर्मुख होने की प्रक्रिया है। सामान्यतः बाहर की ओर प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा को अन्तर की ओर प्रवाहित करने का प्रथम-साधन स्थूल शरीर है। इस स्थूल शरीर के भीतर तैजस और कर्म-ये दो सूक्ष्म शरीर है। उनके भीतर आत्मा है। स्थूल शरीर की क्रियाओ और सवेदनो को देखने का अभ्यास करने वाला क्रमश तैजस और कर्म शरीर को देखने लग जाता है। शरीर-दर्शन का दृढ अभ्यास और मन के सुशिक्षित होने पर शरीर में प्रवाहित होने वाली चैतन्य की १ उत्तरज्झयणाणि, २३/७३ सरीर माहु नावत्ति, जीवो वुच्चई नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो, ज तरंति महेसिणो॥ २ आयारो, २/१२५ आयतचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहो भागं जाणइ, उड्ढ भाग जाणइ, तिरियं भाग जाणइ। १८० / मनोनुशासनम्
SR No.010300
Book TitleManonushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1998
Total Pages237
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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